पिछले वर्षों के सभी, मुद्दे और विकल्प
पूरा करने के लिए , लेंगे फ़िर संकल्प
स्वयं और परिजनों का, करने को उत्कर्ष
----------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
लिप्त रहे निज स्वार्थ में, किया न कोई विकास
परहित की बातें सभी, लगती थीं बकवास
विवश क्या पदमोह ने, कारने जन संघर्ष
------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
जन नायक कुछ आज के, बनकर भ्रष्ट - दलाल
सौदे का मुर्गा समझ, करते हमें हलाल
बेशर्मी को ओढ़कर , प्रकट करें ये हर्ष
-------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
झूठ, द्वेष , पाखण्ड से, ग्रसित हुआ जनतंत्र
भूल गए ये आज सब, देश - प्रगति का मन्त्र
राजनीति के क्षरण का , बतलाने निष्कर्ष
----------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
बने प्रगति सोपान अब , छल , बल, दल, षड्यंत्र
शेष कमी पूरी करे, विकृत मीडिया तंत्र
अपनापन दिखलायेंगे, मिलकर ये दुर्धर्ष
---------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
"सोन-चिरैया" नाम से , था प्रसिद्ध जो देश
दूध - सरित अब न बहें, हैं कंगाल नरेश
नैतिकता का हो रहा, लगातार अपकर्ष
---------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
औद्योगोक उत्थान पर, लगातार कर शोध
निर्भरता हम पायेंगे, हटा सभी अवरोध
ज्ञापित करने विश्व को, जग - सिरमौर सहर्ष
---------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
तकनीकी, विज्ञान से, हों नवीनतम खोज
श्रम, बल, बुद्धि, विवेक से, प्रगति करें हम रोज
बतलाने संसार को, वैभव और प्रकर्ष
---------------------------------------फ़िर आया नव वर्ष
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बुधवार, 31 दिसंबर 2008
मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
परसाई की कड़ी "दादा" दिवंगत

गद्य, पद्य और व्यंग्य की १६ पुस्तकें लिखने वाले दादा म। प्र. साहित्य परिषद के "पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी" पुरस्कार, म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के "वागीश्वरी" पुरस्कार एवं म.प्र. लेखक संघ के "पुष्कर जोशी" सम्मान से अलंकृत थे. डॉ. श्री राम ठाकुर "दादा" देश के विभिन्न नगरों में आयोजित कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों एवं समारोहों में संस्कारधानी का गौरव बढ़ा चुके हैं. आज दिनांक ३० दिसंबर २००८ की पूर्वान्ह रानीताल मुक्तिधाम में नमित हृदय से उनको अंतिम विदाई दी गई.

बुधवार, 24 दिसंबर 2008
साहित्यकार से पत्रकार तक श्री सुशील तिवारी
स्वाधीनता के पश्चात आदर्श पत्रकारिता की मशाल लिए जिन्होंने अपना सर्वस्व समर्पित किया, उनमें से अब कुछ की पवित्र स्मृतियाँ शेष हैं और कुछ आज भी स्वान्तः सुखाय, स्वतन्त्र अथवा अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप लेखनरत हैं। आधुनिक हाईटेक पत्रकारिता आज भी उनकी लगन, सक्रियता, समर्पण और मेलजोल जैसे गुणों में बीस नहीं है. पत्रकारिता के उद्योग की तरह विकसित होने के उपरांत भी आज ऐसे पत्रकारों का अभाव नहीं है जो स्तरीय पत्रकारिता और अपनी अग्रज पीढ़ी का अनुकरण करते हुए पत्रकारिता को नए आयाम दे रहे हैं. इनमें संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय श्री सुशील तिवारी भी अग्रगण्य हैं।
ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक नगर जबलपुर में १० मार्च १९४४ को पं। रेवा प्रसाद तिवारी एवं श्रीमती बेनीबाई तिवारी के घर जन्मे श्री सुशील तिवारी ने स्थानीय राबर्टसन कॉलेज से एम। एससी. उत्तीर्ण कर सिहोरा महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में शिक्षा जगत चुना. इस रास्ते को बदलकर पत्रकारिता में आए श्री तिवारी मूलतः एक साहित्यकार थे, लेकिन अपने लेखन, अपनी अभिव्यक्ति और आत्मसंतुष्टि हेतु उन्हें पत्रकारिता अधिक सहज लगी, क्योंकि पत्रकारिता की भाषा छल-छद्म और महिमा-मंडन से दूर होने के साथ ही ज्यादा अपील करने वाली होती है.
अपने पिता स्वर्गीय पं रेवा प्रसाद तिवारी से विरासत में मिले शिक्षा और संस्कारों ने श्री सुशील तिवारी की प्रतिभा को द्विगुणित किया। साहित्यिक अभिरुचि और निरंतर लेखन में सशक्त अभिव्यक्ति को लेकर उनके ऊहापोह ने अंततः पत्रकारिता ही चुना. आपने नवीन दुनिया जबलपुर से अपना पत्रकारिता अभियान प्रारम्भ किया और जनसत्ता दिल्ली, फ्री प्रेस जनरल मुंबई, इंडियन एक्सप्रेस नागपुर, नई दुनिया इंदौर में सम्पादकीय कार्य के अतिरिक्त हितवाद में अतिथि स्तंभकार के रूप में भी लेखन किया. आप वर्तमान में राष्ट्रस्तरीय दैनिक भास्कर जबलपुर संस्करण के स्थानीय सम्पादक एवं दैनिक भास्कर सतना के प्रभारी सम्पादक पदों को गौरवान्वित कर रहे हैं.
आपके पत्रकारीय लेखन में जहाँ आपकी विशिष्ठ शैली के दर्शन होते हैं वहीं आपके सम्पादकीय, टिप्पणियों एवं आलेखों में सार्थकता , दिशाबोध एवं सकारात्मक विश्लेषण भी परिलक्षित होता है। आपकी लेखनी को प्रबुद्ध गण पाठक गण सदैव गंभीरता से चिंतन-मनन करते हैं. स्पष्ट है ऐसे लेखन हेतु आपकी पैनी नज़र, सजगता एवं पत्रकारीय धर्म आपको प्रेरित करता है। व्यक्तिगत रूप से श्री तिवारी जहाँ एक ओर सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं भारतीयता के साथ कोई समझौता नहीं करते. वे आँख मूँद कर किसी भी विचारधारा के समर्थक नहीं हैं.
पत्रकार बिरादरी से जुड़े होने के कारण वे स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त "मधुकर" जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का स्मरण और अनुकरण करना अपना दायित्व मानते हैं। इस पत्रकारीय अभियान में स्वयं से संतुष्ट अनुभव करने वाले श्री तिवारी आज जिस ऊँचाई पर हैं, यह उनकी लगन, मेहनत, प्रतिभा और विलक्षण पत्रकारीय दृष्टिकोण का प्रतिफल ही कहा जायेगा.
ऐसे कर्मठ एवं प्रतिभावान व्यक्तित्व को " स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त वरिष्ठ पत्रकारिता सम्मान २००८ " से सम्मानित किया जाना हमारे लिए पत्रकारिता के प्रति कृतज्ञता के अक्षत-पुष्प अर्पित करने जैसा है.
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- विजय तिवारी " किसलय "
सोमवार, 22 दिसंबर 2008
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति समारोह का आयोजन
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति समारोह का आयोजन प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी २४ दिसम्बर २००८ को भातखंडे संगीत महाविद्यालय जबलपुर, मध्य प्रदेश , इंडिया में संध्या ६.३० से आयोजित है :-

प्रबुद्ध, स्नेही, स्वजनों की उपस्थिति इस भाव भीने कार्यक्रम में प्रार्थनीय है ।
इस गरिमामय कार्यक्रम में अध्यक्षीय आसंदी को शोभायमान करेंगे विख्यात साहित्यविद प्रो. ज्ञान रंजन जी
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति "वरिष्ठ पत्रकारिता सम्मान" दैनिक भास्कर जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार श्री सुशील तिवारी जी ग्रहण करेंगे
सव्यसाची स्व. प्रमिला बिल्लोरे स्मृति पत्रकारिता सम्मान राज़ केबल जबलपुर के पत्रकार/ संवाददाता श्री पंकज शाह ग्रहण करेंगे संस्कारधानी के
इस अवसर पर संस्कारधानी के वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कुँवर प्रेमिल द्बारा संपादित सामूहिक लघुकथा संग्रह " ककुभ " का लोकार्पण भी किया जायेगा ।
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति आयोजन समिति जबलपुर आप सभी की उपस्थिति हेतु आश्वस्थ है ।

प्रबुद्ध, स्नेही, स्वजनों की उपस्थिति इस भाव भीने कार्यक्रम में प्रार्थनीय है ।
इस गरिमामय कार्यक्रम में अध्यक्षीय आसंदी को शोभायमान करेंगे विख्यात साहित्यविद प्रो. ज्ञान रंजन जी
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति "वरिष्ठ पत्रकारिता सम्मान" दैनिक भास्कर जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार श्री सुशील तिवारी जी ग्रहण करेंगे
सव्यसाची स्व. प्रमिला बिल्लोरे स्मृति पत्रकारिता सम्मान राज़ केबल जबलपुर के पत्रकार/ संवाददाता श्री पंकज शाह ग्रहण करेंगे संस्कारधानी के
इस अवसर पर संस्कारधानी के वरिष्ठ लघुकथाकार श्री कुँवर प्रेमिल द्बारा संपादित सामूहिक लघुकथा संग्रह " ककुभ " का लोकार्पण भी किया जायेगा ।
स्व. हीरा लाल गुप्त स्मृति आयोजन समिति जबलपुर आप सभी की उपस्थिति हेतु आश्वस्थ है ।
सोमवार, 15 दिसंबर 2008
मंगलवार, 25 नवंबर 2008
हमारी लोक संस्कृति और जनमानस में बसा चाँद
चंद्रमा और लक्ष्मी दोनों ही समुद्रमंथन से निकले होने के कारण भाई-बहन कहलाये। विष्णु हमारे जगत पिता और लक्षी हमारी जगत माता हैं। लक्ष्मी के भाई चंद्रमा हमारे मामा हुए , इसी कारण पूरा हिंदू-विश्व चाँद को "चन्दा मामा" कहता है .
विष्णु को सारो, श्रृंगार महेश को,
सागर को सुत, लक्ष्मी को भाई .
तारन को पति, देवन को धन,
मानुष को है महा सुखदाई ॥
चलती रही शीतल पवन
रात बनी रही दुल्हन
शान्त नहीं था मेरा मन
थी अजीब सी वो उलझन .
हम लोक संस्कृति, काव्य, शायरी, चित्रकारी, धर्म, अथवा समाज कहीं की भी बात करें, चाँद हमारे करीब ही होता है. यह शत-प्रतिशत सत्य है. हम ईद के चाँद को ही ले लें या फ़िर करवा चौथ के चाँद को लें, ये कितने व्यापक और धार्मिक पर्व हैं जो चाँद के दर्शन पर ही आधारित हैं . हमारा समाज इन्हें कितनी आस्था और विश्वास के साथ मनाता है , किसी से छिपा नहीं है .
लोक संस्कृति में रचा-बसा , भगवान् शिव के मस्तिष्क पर शोभायमान , कवि-शायरों की श्रंगारिक ऊर्जा , मनुष्य और देवताओं के सुखदाई चाँद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
अन्तरिक्ष में पृथ्वी के सबसे निकट होने के कारण चाँद अपनी चांदनी और अनेक विशेषताओं के कारण प्राणिजगत का अभिन्न अंग है । चाँद के घटते-बढ़ते स्वरूप को हम चंद्रकलाएँ कहते हैं, और इन्ही कलाओं या स्थितियों को हमारे प्राचीन गणितज्ञों एवं ज्योतिषाचार्यों ने चाँद पर आधारित काल गणना विकसित की . प्रतिपदा से चतुर्दशी होते हुए अमावस्या अथवा पूर्णिमा तक दो पक्ष माने गए . शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष मिलकर एक मास बनाया गया है. आज हिंदू समाज के सभी संस्कार अथवा कार्यक्रम इन्ही तिथियों के अनुसार नियत किए जाते हैं . आज भी धार्मिक श्रद्धालु एवं समस्त ग्रामीण काल गणना और अपने अधिकांश कार्य चन्द्र तिथियों के अनुसार ही करते हैं . दिन में जहाँ सूर्य अपने आलोक से पृथ्वी को जीवंत बनाय हुए है , वहीं चाँद रात्रि में अपनी निर्मल चाँदनी से जन मानस को लाभान्वित करने के साथ ही अभिभूत भी करता है .
लोक संस्कृति में आज भी चाँद का महत्त्व सर्वोपरि माना जाता है । दीपावली, दशहरा, होली, रक्षाबंधन, शरद पूर्णिमा, गणेश चतुर्थी, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, सोमवती अमावस्यायें, कार्तिक पूर्णिमा, जैसे सारे व्रत या पर्व चाँद की तिथियों पर ही आधारित हैं . इनमें से शरद पूर्णिमा तो मुख्यतः चाँद का ही पर्व कहलाता है . इस दिन की चाँदनी यथार्थ में अमृत वर्षा करती प्रतीत होती है .
यदि हम समाज की बात करें तो आज भी छोटे बच्चों को चाँद की और इशारा कर के बहलाने का प्रयास किया जाता है । " चन्दा मामा दूर के , पुए पकाए बेल के " जैसे काव्य मुखड़ों से सारा समाज परिचित है . वहीं आज भी भगवान् कृष्ण जी का " मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों " कह कर माँ यशोदा से रूठ जाना किसे याद नहीं है . दूज के चाँद की सुन्दरता अनुपम न होती तो भगवान् शिव इसे अपने भाल का श्रृंगार ही क्यों बनाते तथा वे चंद्रमौली या चंद्रशेखर कैसे कहलाते . यहाँ बुन्देली काव्य की दो पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :-
विष्णु को सारो, श्रृंगार महेश को,
सागर को सुत, लक्ष्मी को भाई .
तारन को पति, देवन को धन,
मानुष को है महा सुखदाई ॥
इन पंक्तियों में चाँद को मानव और देवताओं सभी के लिए सुखदाई बताया गया है ।
इस तरह चाँद की तुलनाएँ, उपमाएँ और सौन्दर्य वर्णन में उपयोग को देखते हुए लगता है कि यदि चाँद नहीं होता तो कवि-शायरों के पास एक विकट समस्या खड़ी हो जाती . चौदहवीं का चाँद हो, चन्दा है तू, मेरा सूरज है तू, तू मेरा चाँद मैं तेरी चाँदनी, चाँद सी महबूबा हो मेरी, य फ़िर मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी ... आदि सदाबहार गीत हम आज नहीं गुनगुना पाते ..
प्रारंभ से ही प्राणिजगत का चाँद के प्रति गहरा लगाव रहा है । यदि हम यहाँ ये कहें कि चाँद के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी . लोग कल्पना करते थे कि चाँद पर कोई बुढिया चरखा चला रही है या झाडू लगा रही है, भले ही आज मानव चाँद पर जा चुका है पर उसकी विशेषताओं में अभी तक कोई फर्क नहीं पडा है. चाँद की शीतलता और उसका तारों भरे आकाश में शुभ्र चाँदनी बिखेरना, किसे नही भाता. मेरे ही शब्दों में :-
प्रारंभ से ही प्राणिजगत का चाँद के प्रति गहरा लगाव रहा है । यदि हम यहाँ ये कहें कि चाँद के बिना भारतीय संस्कृति अधूरी है तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी . लोग कल्पना करते थे कि चाँद पर कोई बुढिया चरखा चला रही है या झाडू लगा रही है, भले ही आज मानव चाँद पर जा चुका है पर उसकी विशेषताओं में अभी तक कोई फर्क नहीं पडा है. चाँद की शीतलता और उसका तारों भरे आकाश में शुभ्र चाँदनी बिखेरना, किसे नही भाता. मेरे ही शब्दों में :-
पर्वतों कि चोटियों पे आ के
बादलों के घूँघटों से झाँके
हो गई ये रात भी सुहानी
चाँद तेरी रौशनी को पा के ...
बादलों के घूँघटों से झाँके
हो गई ये रात भी सुहानी
चाँद तेरी रौशनी को पा के ...
चाँद जहाँ सुन्दरता का प्रतीक माना जाता है, वहीं उस पर दाग होने की कमी भी गिनाई जाती है . हमारे ग्रंथों में कहीं पर तो उसे देखने से ही चोरी या कलंक का दोष लगने का कारण भी बताया गया है . इसी सन्दर्भ में स्वयं भगवान् कृष्ण द्वारा शुक्लपक्षी भाद्रपद की चतुर्थी के चाँद को देख लेने पर उनके ऊपर " स्मन्तक मणि " की चोरी का आरोप भी लगा दिया गया था, भले भी उन्होंने बाद में स्वयं को निर्दोष सिद्ध कर दिया हो . कहते है चाँदनी रात का सुरम्य , शांत और एकांतप्रिय माहौल कवि-शायरों कि साधना के लिए उपयुक्त होता है, वहीं अशांत मन के लिए शान्ति की तालाश भी की जाती है :-
एक शाम सुनसान में
चाँद था आसमान में
गुमसुम सा बैठा रहा
न जाने किस अरमान में
चाँद था आसमान में
गुमसुम सा बैठा रहा
न जाने किस अरमान में
चलती रही शीतल पवन
रात बनी रही दुल्हन
शान्त नहीं था मेरा मन
थी अजीब सी वो उलझन .
हम लोक संस्कृति, काव्य, शायरी, चित्रकारी, धर्म, अथवा समाज कहीं की भी बात करें, चाँद हमारे करीब ही होता है. यह शत-प्रतिशत सत्य है. हम ईद के चाँद को ही ले लें या फ़िर करवा चौथ के चाँद को लें, ये कितने व्यापक और धार्मिक पर्व हैं जो चाँद के दर्शन पर ही आधारित हैं . हमारा समाज इन्हें कितनी आस्था और विश्वास के साथ मनाता है , किसी से छिपा नहीं है .
लोक संस्कृति में रचा-बसा , भगवान् शिव के मस्तिष्क पर शोभायमान , कवि-शायरों की श्रंगारिक ऊर्जा , मनुष्य और देवताओं के सुखदाई चाँद की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।
सोमवार, 17 नवंबर 2008
रविवार, 16 नवंबर 2008
उफ़ ये चुनाव
देश के राज्यों में इन दिनों चुनाव का बुखार चढ़ा हुआ है । राजा से रंक तक , शासन से आसन तक हर ओर कयास और प्रयास का जोर है । चुनाव होंगे, सरकार बनेगी, लेकिन चुनाव में सब परेशान हैं । नेता जी भुन्सारे से अधरतिया तक लगे हैं कि कोई इलाका न छूट पाये , प्रशासन लगा है कि कोई गड़बड़ न हो जाए , चुनाव कर्मी को डर है कि कोई गलती न हो जाए नही तो रोजी रोटी के लेने के देने पड़ जाएँ । जनता भी चतुर है , सब से हाँ - हाँ कर रही है , जैसे सभई को वोट देना हो ?
ऐसी घड़ी में भैया बस जा समझ में आई कि इस पीरियड के अस्थायी देवी-देवता बस जनता जनार्दन ही हैं , सो इनकी पूछ परख मतदान के दिन तक बिजली की डिमांड जैसी बढ़ती ही जा रही है, और फ़िर सबको मालुम है कि चुनाव के बाद इनकी हालत बिल्कुल आज के शेयर बाज़ार जैसी हो जाना है ।
इसलिए, हे अस्थाई देवी-देवताओ ! अभी भी आपके पास वक्त है चिंतन-मनन करने का, कि अगले पाँच वर्षों में आपको कैसे प्रतिनिधि और किस प्रकार अपने विवेक का स्तेमाल करके सही लोकतांत्रिक व्यवस्था के गठन में अपना सहयोग करना है।
आज जब ये चुनाव हमें एक मुसीबत से कम नहीं लगते, और सारे राष्ट्र की परेशानी जैसे लगते हैं। कितना पैसा, कितनी मशीनरी, कितनी बिजली, कितना पेट्रोल, कितनी मानव शक्ति लगती है इसमें, और यदि सरकार स्थायी नहीं रही तो फ़िर इतना ही बखेडा,,, वैसे ही महंगाई, अन्तरराष्ट्रीय क़र्ज़ , मुद्रा स्फीति, १००% सरकारी पैसों का उपयोग न होना जैसे कितने प्रकार के कोढ़ भारत को लगे हैं , कहने का मतलब, दूबरे और दो आषाढ़ जैसी बात न बने, इसलिए भइया ये चुनाव पाँच बरस में एकई बार हों तोई अच्छा है । इन्हई सब बातों के चलते आज कल चाहे जहाँ ये जुमला सुनने को मिल रहा है - उफ़ ये चुनाव ! , कब ख़तम हों .........
शनिवार, 15 नवंबर 2008
शुक्रवार, 14 नवंबर 2008
नन्ही परियाँ
अपने मन की,
बात बतायें
परीलोक में,
हम चढ़ जाएँ
लायें वहाँ से,
नन्ही परियाँ
देख जले फिर,
सारी दुनिया
हम परियों के,
साथ में खेलें
अम्मा-दीदी,
रोटियाँ बेलें
भूख लगे तब,
घर पर आयें
साथ बैठकर,
खाना खायें
संध्या को वे,
गाना गायें
थपकी देकर,
हमें सुलायें
बात बतायें
परीलोक में,
हम चढ़ जाएँ
लायें वहाँ से,
नन्ही परियाँ
देख जले फिर,
सारी दुनिया
हम परियों के,
साथ में खेलें
अम्मा-दीदी,
रोटियाँ बेलें
भूख लगे तब,
घर पर आयें
साथ बैठकर,
खाना खायें
संध्या को वे,
गाना गायें
थपकी देकर,
हमें सुलायें
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
सोमवार, 10 नवंबर 2008
बेवफा का पति
आज सुबह से ही
हमारे पड़ोसी
हो रहे थे परेशान
क्योंकि उनके घर
आए हुए थे
अनचाहे मेहमान
हमारे पड़ोसी
हो रहे थे परेशान
क्योंकि उनके घर
आए हुए थे
अनचाहे मेहमान
परन्तु उनकी पत्नी
कुछ अधिक ही
खुश लग रही थी
जमीन की छोडिये
हवा में उड़ रही थी
पति यह तथ्य
समझ ही नही पा रहा था
बस मन ही मन
घुटा जा रहा था
आज रोटियों की जगह
पूरियाँ बनाई जा रही हैं
बिना किसी पर्व के
खुशियाँ मनाई जा रही हैं
आज पत्नी बार बार
प्यार जता रही है
गुस्से की जगह
मुस्कराए जा रही है
आज शहर से दूर
सैर पर ले जा रही है
बाग़ में बैठाकर
अपनत्व दिखा रही है
कदाचित
कहीं उलझाए जा रही है
मुद्दतों से प्यार का
प्यासा पति
प्यार की हिलोरों में
खो गया
पता ही न चला
कब सो गया
कुछ ही क्षणों में
वह घड़ी भी आई
जब पत्नी ने
चारों ओर नज़र दौडाई
किसी इशारे ने
उसकी हिम्मत बढाई
तभी उसने
अपना हाथ उठाया
हवा में लहराया
और बड़ी बेरहमी से
अपने ही पति के
सीने में चाकू घुसाया
सोया हुआ पति
कुछ कर ही नहीं पाया
बस, कसाई के
बैल-सा चिल्लाया
रविवार, 9 नवंबर 2008
शिखा एक बहुआआयामी व्यक्तित्व
शिखा जी के अनुसार अँग्रेज़ी अथवा अन्य भाषाएँ जानना उतने गर्व की बात नही है , जितना अपनी मातृ भाषा को महत्व देना गर्व की बात है । साहित्य लेखन के संबंध में उन्होंने बताया की छंदबद्ध रचनाएँ उन्हें क्या सभी को पसंद आती हैं, लेकिन अपनी स्वच्छंद अभिव्यक्ति के लिए वे काव्य के नियमों में बंधना नहीं चाहती . अपने मनोभाव कागज पर उतारना उन्हें अच्छा लगता है. जिसे ही वे अपना साहित्य मानती हैं ॥
श्री हरिवंश राय बच्चन और श्री रामधारी सिंह दिनकर जी को अपनी पसंद बताते हुए उन्हें अपने बचपन के दिन याद आते हैं जब वो इनकी रचनाएँ पढ़ा करती थीं । ग़ज़ल सुनना, कविताएँ लिखना , पेंटिंग करना , ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करना आदि आपकी अभि रुचियाँ उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उजागर करती हैं . मृदुभाषी और सकारात्मक दृष्टिकोण वाली शिखा जी आज के दौर में "ब्लॉग्स" को अपनी अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम मानती हैं.
शिखा वार्ष्णेय से हिन्दी साहित्य प्रेमियों को काफ़ी अपेक्षाएँ हैं, हम उनके सुनहरे एवं यशस्वी भविष्य की कामना करते हैं
आज यहाँ हम उनकी एक रचना आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं :-
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ
तेरी व्याख्या के लिए
हर शब्द अधूरे लगते हैं
तेरी ममता के आगे
ये आसमान भी छोटा लगता है
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ ?
याद है तुम्हें?
मेरी हर जिद्द को
आख़िरी है कह कर
पापा से मनवा लेती थी तुम॥
मेरी हर नासमझी को
बच्ची है कह कर
टाल दिया करती थीं तुम
पर ईश्वर के आगे बैठ कर
हर रोज़
कुछ बुदबुदाया करती थीं तुम
जब हम तुम्हारी तरह
मुँह बना नकल कर
ज़ोर से हँसते थे
तो झूठ मूठ के गुस्से में
थप्पड़ दिखाया करती थीं तुम।
होंठों पर थिरकते
उन शब्दों का अर्थ
आज़ मैं तब समझ पाई हूँ
क्योंकि अब
हर सवेरे वही शब्द
मैं भी अपनी बेटी के लिए
बुदबुदाती हूँअसीम साहस भरा है तुझमें
धैर्य की तू मूरत है
ममता से फैला ये आँचल
जग को समेटने मैं सक्षम है
तुझ से प्यारा,
तुझसा महान
और कोई बंधन होगा क्या?
तुझ पर और क्या मैं लिखूं माँ ...
- शिखा वार्ष्णेय, लंदन
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शनिवार, 8 नवंबर 2008
हरित क्रांति का बिगुल
दृष्टिकोण
दैनिक पूजन-अर्चन के उपरांत स्वामी परमानन्द जी आज भी मठ के बाहर बैठे भिक्षुओं को खाना खिला कर अपनी आसंदी पर बैठ गए ।
उपस्थित श्रद्धालुओं के साथ स्वामी जी ने धार्मिक चर्चा प्रारंभ की ।

[विष्णु वराह मन्दिर मझौली ,जबलपुर [म.प्र]
आज हिम्मत जुटा कर सार्थक ने स्वामी जी से पूछ लिया :- - स्वामी जी ! क्या आप ऐसा मानते हैं कि बाहर बैठे उन भिक्षुओं को रोज-रोज खाना खिलाने से आपको पुण्य मिलेगा ही ?
स्वामी जी :- अवश्य मिलेगा सार्थक जी ......
सार्थक :- क्षमा करें स्वामी जी , लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगता !
स्वामी जी :- ऐसा क्यों सोचते हो सार्थक जी ?
सार्थक :- क्योंकि स्वामी जी आप इन्हें इस तरह इतनी आसानी से नित्य खाना खिला कर इन्हें इनके कर्मपथ से विमुख कर रहे हैं । आप अनजाने में ही सही, इन्हें आलस्य की और प्रेरित कर रहे हैं, क्षमा करें स्वामी जी, जिसके जवाबदेह भी शायद आप ही होंगे !
सार्थक के इस दृष्टिकोण पर स्वामी जी एक गहरी सोच में पड़ गए .
- विजय तिवारी " किसलय "
वास्तविक प्रतिष्ठा

शहर के प्रतिष्ठित सेठ राम शरण जी अक्सर स्वामी निश्छलानंद जी के आश्रम जाया करते थे । वे स्वामी जी की सद् वाणी श्रवण तो करते ही थे, साथ में आश्रम और स्वामी जी का छोटे से छोटा काम भी बड़ी तन्मयता से किया करते थे . आश्रम में आए हुए गरीब भिखारियों से लेकर सभी आगंतुकों का भी ध्यान रखते थे .
स्वामी जी के सानिध्य में उन्हें परम आनंद की प्राप्ति होती थी। राम शरण जी सदैव ही स्वामी जी के स्नेहाकांक्षी रहते थे . उनका अनुभव था कि स्वामी जी द्बारा सिर पर हाथ रखने पर उन्हें आत्मशान्ति प्राप्त होती थी.
वे चाहते तो अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप आश्रम आकर स्वामी जी का दर्शन और आशीर्वाद प्राप्त का सकते थे परन्तु उनहोंने विनम्रता और सादगी वाला मार्ग ही क्यों चुना ? , इस उलझन का समाधान करते हुए उन्होंने जब मुझे बताया कि समाज में मेरी प्रतिष्ठा का रहस्य विनम्रता, सादगी, सेवा भावना एवं स्वामी जी के स्नेह में ही निहित है, क्योंकि अभिमान और सम्पन्नता का मेल समाज में मानव को वास्तविक प्रतिष्ठा नहीं दिलाते ।
उनकी इस विचारधारा से मेरा सिर उनके सामने आदर और श्रद्धा से झुक गया।
- विजय तिवारी " किसलय "
मंगलवार, 4 नवंबर 2008
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