रविवार, 16 नवंबर 2008

उफ़ ये चुनाव

देश के राज्यों में इन दिनों चुनाव का बुखार चढ़ा हुआ है । राजा से रंक तक , शासन से आसन तक हर ओर कयास और प्रयास का जोर है । चुनाव होंगे, सरकार बनेगी, लेकिन चुनाव में सब परेशान हैं । नेता जी भुन्सारे से अधरतिया तक लगे हैं कि कोई इलाका न छूट पाये , प्रशासन लगा है कि कोई गड़बड़ न हो जाए , चुनाव कर्मी को डर है कि कोई गलती न हो जाए नही तो रोजी रोटी के लेने के देने पड़ जाएँ । जनता भी चतुर है , सब से हाँ - हाँ कर रही है , जैसे सभई को वोट देना हो ?
ऐसी घड़ी में भैया बस जा समझ में आई कि इस पीरियड के अस्थायी देवी-देवता बस जनता जनार्दन ही हैं , सो इनकी पूछ परख मतदान के दिन तक बिजली की डिमांड जैसी बढ़ती ही जा रही है, और फ़िर सबको मालुम है कि चुनाव के बाद इनकी हालत बिल्कुल आज के शेयर बाज़ार जैसी हो जाना है ।
इसलिए, हे अस्थाई देवी-देवताओ ! अभी भी आपके पास वक्त है चिंतन-मनन करने का, कि अगले पाँच वर्षों में आपको कैसे प्रतिनिधि और किस प्रकार अपने विवेक का स्तेमाल करके सही लोकतांत्रिक व्यवस्था के गठन में अपना सहयोग करना है।
आज जब ये चुनाव हमें एक मुसीबत से कम नहीं लगते, और सारे राष्ट्र की परेशानी जैसे लगते हैं। कितना पैसा, कितनी मशीनरी, कितनी बिजली, कितना पेट्रोल, कितनी मानव शक्ति लगती है इसमें, और यदि सरकार स्थायी नहीं रही तो फ़िर इतना ही बखेडा,,, वैसे ही महंगाई, अन्तरराष्ट्रीय क़र्ज़ , मुद्रा स्फीति, १००% सरकारी पैसों का उपयोग न होना जैसे कितने प्रकार के कोढ़ भारत को लगे हैं , कहने का मतलब, दूबरे और दो आषाढ़ जैसी बात न बने, इसलिए भइया ये चुनाव पाँच बरस में एकई बार हों तोई अच्छा है । इन्हई सब बातों के चलते आज कल चाहे जहाँ ये जुमला सुनने को मिल रहा है - उफ़ ये चुनाव ! , कब ख़तम हों .........
- विजय तिवारी " किसलय "






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