शिखा जी के अनुसार अँग्रेज़ी अथवा अन्य भाषाएँ जानना उतने गर्व की बात नही है , जितना अपनी मातृ भाषा को महत्व देना गर्व की बात है । साहित्य लेखन के संबंध में उन्होंने बताया की छंदबद्ध रचनाएँ उन्हें क्या सभी को पसंद आती हैं, लेकिन अपनी स्वच्छंद अभिव्यक्ति के लिए वे काव्य के नियमों में बंधना नहीं चाहती . अपने मनोभाव कागज पर उतारना उन्हें अच्छा लगता है. जिसे ही वे अपना साहित्य मानती हैं ॥
श्री हरिवंश राय बच्चन और श्री रामधारी सिंह दिनकर जी को अपनी पसंद बताते हुए उन्हें अपने बचपन के दिन याद आते हैं जब वो इनकी रचनाएँ पढ़ा करती थीं । ग़ज़ल सुनना, कविताएँ लिखना , पेंटिंग करना , ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करना आदि आपकी अभि रुचियाँ उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उजागर करती हैं . मृदुभाषी और सकारात्मक दृष्टिकोण वाली शिखा जी आज के दौर में "ब्लॉग्स" को अपनी अभिव्यक्ति का सबसे अच्छा माध्यम मानती हैं.
शिखा वार्ष्णेय से हिन्दी साहित्य प्रेमियों को काफ़ी अपेक्षाएँ हैं, हम उनके सुनहरे एवं यशस्वी भविष्य की कामना करते हैं
आज यहाँ हम उनकी एक रचना आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं :-
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ
तेरी व्याख्या के लिए
हर शब्द अधूरे लगते हैं
तेरी ममता के आगे
ये आसमान भी छोटा लगता है
तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ ?
याद है तुम्हें?
मेरी हर जिद्द को
आख़िरी है कह कर
पापा से मनवा लेती थी तुम॥
मेरी हर नासमझी को
बच्ची है कह कर
टाल दिया करती थीं तुम
पर ईश्वर के आगे बैठ कर
हर रोज़
कुछ बुदबुदाया करती थीं तुम
जब हम तुम्हारी तरह
मुँह बना नकल कर
ज़ोर से हँसते थे
तो झूठ मूठ के गुस्से में
थप्पड़ दिखाया करती थीं तुम।
होंठों पर थिरकते
उन शब्दों का अर्थ
आज़ मैं तब समझ पाई हूँ
क्योंकि अब
हर सवेरे वही शब्द
मैं भी अपनी बेटी के लिए
बुदबुदाती हूँअसीम साहस भरा है तुझमें
धैर्य की तू मूरत है
ममता से फैला ये आँचल
जग को समेटने मैं सक्षम है
तुझ से प्यारा,
तुझसा महान
और कोई बंधन होगा क्या?
तुझ पर और क्या मैं लिखूं माँ ...
- शिखा वार्ष्णेय, लंदन
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- विजय तिवारी '' किसलय ''
20 टिप्पणियां:
bahot hi dard bhara aur sundar bhav bahot khub ....
अर्श जी
सादर अभिवंदन
आप मेरे ब्लॉग तक आए
आलेख और रचना पढ़ी
स्नेह बनाये रखें.
आपका
विजय तिवारी " किसलय "
बहुत अच्छा लगा शिखा जी को जानकर ।
आभार ।
संजीव जी [आरम्भ]
नमस्कार
आपने मेरे ब्लॉग तक आकर शिखा जी का आलेख पढ़ा
अच्छा लगा ,
धन्यवाद
आपका
विजय तिवारी " किसलय "
http://hindisahityasangam.blogspot.com/
aap sabne mujhe itna smaan dia....bahut bahut shukriya.
shikha jee
aap is samman ki kabiliyat rakhti thee, yahi kaaran hai ki aap ko hamne khoj nikaala
aapka
vijay
sikha ji
apko janti pahle s ehun kavita ke madhaym se magar aaj aur jana acha laga...
maa ki abhivaykti bahut sundar aur satik
sakhi
मेरी हर जिद्द को आख़िरी है कह कर पापा से मनवा लेती थी तुम॥
मेरी हर नासमझी को बच्ची है कह कर टाल दिया करती थीं तुम पर ईश्वर के आगे बैठ कर हर रोज़ कुछ बुदबुदाया करती थीं तुम जब हम तुम्हारी तरह मुँह बना नकल कर ज़ोर से हँसते थे तो झूठ मूठ के गुस्से में थप्पड़ दिखाया करती थीं तुम। होंठों पर थिरकते उन शब्दों का अर्थ आज़ मैं तब समझ पाई हूँ क्योंकि अब हर सवेरे वही शब्द मैं भी अपनी बेटी के लिएबुदबुदाती हूँ
ये सब बड़े होने पर बहुत अच्छी तरह से समझ में आता है .
अच्छी प्रस्तुती और सभी के मनकी भावनाओं को शब्दों में लाने के लिए बधाई
anupam jee
namaskaar
aapne shikha ji ki rachna ko pasnd kiya
dhnywaad,
aapki tippani ko main shikha jee tak avashy pahunchaaoonga
aapka
vijay
shikha ji
bahut hi marmik prastuti hai aapki.
MA yeh shabd hi sab kuch samete hai apne aap mein aur aapne bhi usmein uske har bhav ko samet diya hai.
विजय तिवारी " किसलय " जी!
शिखा वार्ष्णेय के परिचय के साथ
उनकी मार्मिक रचना
प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद!
शिखा वार्ष्णेय जी को बधाई!
अच्छा लगा जानकार.. आशा है शिखा जी की और रचनाएं भी आती रहेंगी..
अच्छा लगा , लंदन में रहते हुए शिखा जी ने साहित्य के प्रति जो अपनी भावनाएं
व्यक्त की है , ऐसी सकारात्मक सोच से निश्चय ही साहित्य की गरिमा बनी रहेगी .
shikha....(yahaan meri bahan kaa naam bhi shikha hai aur main use aap se nahin bulata....so tumhen bhi aap nahin kahaa jaa rahaa mujhse....)maine kuchh kahanaa tha tumhaari kavita par...magar kah nahin paa rahaa....maa shabd se hi meri zubaan sil jaati hai..aur tumhari kavita darasal mujhe meri hi abhivyakti maalum padti hai... isliye apni kavita ke roop men hi kuchh kahana chaahataa hun...
ओ माँ....मेरी माँ....!!
मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!
ओ माँ....मेरी माँ....
तेरा छाँव देता आँचल,
मुझे आज बहुत याद आ रहा है,
खाने के लिए गली में मुझे आवाज़ देता हुआ
तेरा चेहरा मेरी आँखों में समा रहा है....
मैं जानता हूँ..... ओ माँ
कि तू मुझे बहुत याद करती होगी...
मगर मैं भी याद तुझे कुछ कम नहीं कर रहा...
तेरा मुझे डांटता-फटकारता और साथ ही
बेतरह प्यार करता हुआ मंज़र ही अब मेरा
साया है और प्यार भरी मेरी छत है !
दूर-दूर तक पुकारती हुई तू मुझे
आज भी मेरे आस-पास ही दिखाई देती है !
मुझे ऐसा लगता है अक्सर कि-
मैं आज भी तेरी गोद में तेरे हाथों से
छोटे-छोटे कौर से रोटियाँ खा रहा हूँ,
तेरे साथ कौन-कौन से खेल खेल रहा हूँ,
तेरी सुनाई हुई अनजानी-सी कहानियां
आज भी मेरे कानों से लेकर
मेरे दिल का पीछा करती हुई-सी लगती है !!
सच ओ माँ....मैं तुझे
बेहद याद करता हूँ....बेहद याद करता हूँ....!!
माँ मुझे पता है कि तेरा आँचल आज भी
मुझे छाँव देने के लिए छटपटाता है और मैं-
ना जाने किस-किस जगहों पर
किन-किन लोगों से घिरा हुआ हूँ....
मैं नहीं जानता हूँ ओ माँ-
कि तू किस तरह मेरा पीछा करती है??
मगर मैं जान जाता हूँ कि तू
किस समय किस तरह से याद कर रही है,
तेरी यादों का तो मैं कुछ नहीं कर सकता....
तेरे दिल के खालीपन को भरना भी तो
अब मेरे वश की बात नहीं है,
मगर सच कहता हूँ ओ माँ-
जब भी तू मुझे याद करती है,
मैं कहीं भी होऊं....अपने अंतस के
पोर-पोर तक तक भीग जाता हूँ
और इस तरह से ओ माँ
मैं आकर तुझमें ही समा जाता हूँ....!!
DR. saheb
shikha ji ke sath aap bhi bandhai ke haqdaar hai
swikar karen
khubasurat rachana
तुझ से प्यारा,
तुझसा महान
और कोई बंधन होगा क्या?
bahut achchhaa likhaa hai aapne
bhut sundar
aadab
Ati sundar
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