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बुधवार, 3 अप्रैल 2013

मेरा दृष्टिकोण

मेरा दृष्टिकोण 
प्रस्तुति-
डॉ विजय तिवारी "किसलय"

रविवार, 6 नवंबर 2011

बेटी बचाओ अभियान : वरिष्ठ कवयित्री श्रीमती मनोरमा तिवारी जबलपुर की कविता "रानी बिटिया"


श्रीमती मनोरमा तिवारी जबलपुर की वरिष्ठ कवयित्री हैं. आपने अपना सम्पूर्ण जीवन अध्यापन एवं साहित्य सृजन  को समर्पित किया है. सेवानिवृत्ति के पश्चात भी आप साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़कर स्वयं को धन्य मानती हैं. आपकी लेखनी में काव्य में प्रांजलता  का समावेश स्पष्ट देखा जा सकता है. आपकी रचनाओं में विविधता के साथ साथ सारगर्भिता भी दिखाई देती है.
 आज हम उनसे उनकी कविता "रानी बिटिया" सुनते हैं. बेटी बचाओ अभियान पर केन्द्रित इस रचना को सुनाने और देखने के लिए निम्न वीडियो को क्लिक करें:- 


प्रस्तुति:-























- विजय तिवारी "किसलय" 

बुधवार, 16 मार्च 2011

लूटकर खुशियाँ हमारी, क्या मिला तुझको सुनामी ?


जलजला    के   बीच  आई,  तू   लहर   कैसी    सुनामी.
लूटकर खुशियाँ हमारी, क्या मिला तुझको सुनामी ?

वे   जहाँ    रहते थे   निर्भय,
गोद   माता   की     समझकर.
काल   उनकी   तू     बनी  जो,
कर सके न कुछ सम्हलकर..

नाव जीवन की  डुबोने, क्यों   प्रलय पतवार थामी ?
लूटकर खुशियाँ हमारी, क्या मिला तुझको सुनामी ?

सिन्धु तट पर जो खड़े थे,
'जन'  'महल'  'घर'   'झोपड़े'.
आ  सके  न काम  उनके,
स्वर्ण,       चाँदी,      रोकड़े..

बह   गए   सब   जीवधारी,   छोटे-बड़े,    नामी-गिरामी.
लूटकर खुशियाँ हमारी, क्या मिला तुझको सुनामी ?

प्राकृतिक      हर   आपदा,
आती    कभी न बोलकर.
दे मदद   इस त्रासदी में,
सारा जहाँ दिल खोलकर..

आएगी   फिर   से वहाँ के, सर्द    चेहरों   पर ललामी.
लूटकर खुशियाँ हमारी, क्या मिला तुझको सुनामी ?
=०=


-विजय तिवारी "किसलय"

सोमवार, 20 सितंबर 2010

सब सूना बिन तेरे छलिया

गोकुल के ओ बंशी बजैया
पावन बंशी बजाने वाले
लचायें हम यमुना तीरे

प्रकट नहीं क्यों होते ग्वाले
सारे दिन कुंजन वन भटके
र्शन की हम आस लगाए

व्याकुल सखियाँ, आतुर साथी
याद तेरी हम सबको सताए
ब सूना बिन तेरे छलिया 

विरही मन की प्यास बुझा दो
हाँ  कहीं भी छुपे हुये हो
हाँ पहुँचकर दरश दिखा दो.











- विजय तिवारी ' किसलय '

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

फिर आया नव वर्ष

पिछले वर्षों के सभी, मुद्दे और विकल्प


पूरा करने के लिए, लेंगे फिर संकल्प


स्वयं और परिजनों का, करने को उत्कर्ष


--------------------- फिर आया नव वर्ष




लिप्त रहे निजस्वार्थ में, किया न कोई विकास


परहित की बातें सभी, लगती थीं बकवास


विवश किया पदमोह ने, करने जन संघर्ष


--------------------- फिर आया नव वर्ष




जननायक कुछ आज के, बनकर भ्रष्ट-दलाल


सौदे का मुर्गा समझ, करते हमें हलाल


बेशर्मी को ओढ़कर, प्रकट करें ये हर्ष


---------------- फिर आया नव वर्ष




झूठ, द्वेष , पाखण्ड से, ग्रसित हुआ जनतंत्र


भूल गए ये आज सब, देश-प्रगति का मन्त्र


राजनीति के क्षरण का , बतलाने निष्कर्ष


--------------------- फिर आया नव वर्ष




बने प्रगति सोपान अब, छल, बल, दल, षड्यंत्र


शेष कमी पूरी करे, विकृत मीडिया तंत्र


अपनापन दिखलायेंगे, मिलकर ये दुर्धर्ष


-------------------- फिर आया नव वर्ष




"सोन-चिरैया" नाम से, था प्रसिद्ध जो देश


दूध - सरित अब न बहें, हैं कंगाल नरेश


नैतिकता का हो रहा, लगातार अपकर्ष


----------------- फिर आया नव वर्ष




औद्योगिक उत्थान पर, लगातार कर शोध


निर्भरता हम पायेंगे, हटा सभी अवरोध


ज्ञापित करने विश्व को, जग-सिरमौर सहर्ष


------------------------ फिर आया नव वर्ष




तकनीकी, विज्ञान से, हों नवीनतम खोज


श्रम, बल, बुद्धि, विवेक से, प्रगति करें हम रोज


बतलाने संसार को, वैभव और प्रकर्ष


--------------- फिर आया नव वर्ष




-डॉ विजय तिवारी " किसलय "

(नव वर्ष पर इस रचना का पुनर्प्रकाशन किया गया है )

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

संतोषी

रल, सरस, मधुमय वाणी से,


................... जिनके हृदय सुशोभित हों।


रो ज खुशी की भोर हो ऐसी,


.................... सबके मन आलोकित हों॥


ग में जन्म मिला है तो हम,


..................... मानव हित के कर्म करें।


ठा नें हम परहित करने की,


..................... कहीं कभी न शर्म करें॥


कु न्दन ज्यों तप-तप कर निखरे,


................... त्यों कर्मों से खुशी मिले।


हते जो " संतोषी " बनकर,


................. उनके तन-मन दिखें खिले॥

- विजय तिवारी " किसलय "

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

अक्षर साधक


अक्षर साधक
विद्या, विनय, विवेक विशारद,
नोदक  नर्तन, कला समर्पित .
दर्पहीन, दरियादिल, दर्पण,
नम्रभावमय, निश-दिन हर्षित .. 
यत्नशील, दृढ़ निश्चयी, कर्मठ ,
नव्य सृजक,  साहित्याराधक,
जीवट, मुदितमाना,  संकल्पी,
यश हो तेरा अक्षरसाधक ..  
-o-

- विजय तिवारी " किसलय "

मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

लिख दें ऐसी नई इबारत


भारत के माथे पर दमके, अमन-चैन, समता का चंदन।

जन-जन के अंतस में उपजे, देशप्रेम, निज-भू का वंदन।।


नैतिकता, आदर्श, धर्म को, मन-मंदिर में रखें संजोकर।

वास्तुशिल्प, इतिहास, कलायें, संस्कार हम करें शिरोधर।।


शिक्षारत शत प्रतिशत बच्चे, दक्ष बनें कर कठिन परिश्रम।

चतुर्दिशाओं में विकसित हों, औद्योगिक, तकनीकी उपक्रम।।


मातृभूमि पर मिटने वाले, स्मृतियों के रहें शिखर पर।

कीमत जानें आजादी की, वीरों की गाथा पढ़ सुनकर।।



शासन के हर निर्देशों का, निश्चित हो ऐसा अनुपालन।

लाभ पहुँचता रहे हमेशा, आम आदमी के घर-आँगन।।


देश प्रगति के जज्बातों की, दिल में उठें हिलोरें हर पल।

भारत माता के आँचल में, सरिता बहे खुशी की अविरल।।


आओ लगन और प्रतिभा से, लिख दें ऐसी नई इबारत।

जग के हर कोने-कोने में, जाना जाये मेरा भारत।।

- विजय तिवारी ‘ किसलय ’

शनिवार, 15 अगस्त 2009

मन में कभी न लायें

जितना बने बड़ों का,
आदर करें - करायें।
बस , गैर को सताना,
मन में कभी न लायें ॥
0
हम मानवीय रिश्ते,
जग में सदा निभायें।
बस, दुश्मनी निभाना,
मन में कभी न लायें॥
0
रोड़े बनें न मज़हब,
सबको गले लगायें।
बस, भेदभाव करना,
मन में कभी न लायें॥
0
बन कर्म के पुजारी,
आगे कदम बढ़ायें,
बस, कर्महीन बनना,
मन में कभी न लायें॥
0
हम आसपास अपने,
सच की फसल उगायें,
बस, झूठ लहलहाना,
मन में कभी न लायें॥
0
कोशिश, लगन मनुज को,
उपलब्धियाँ दिलायें।
बस, लक्ष्य को भुलाना,
मन में कभी न लायें॥
0
हम द्वेष-ईर्ष्या को,
हर हाल में हटायें ।
बस, आपसी बुराई,
मन में कभी न लायें॥
0
चहुँओर हम प्रगति का,
अभियान नित चलायें।
बस, स्वार्थलिप्त रहना,
मन में कभी न लायें॥
0
"किसलय" महान भारत,
सच में सभी बनायें।
बस व्यर्थ दंभ भरना,
मन में कभी न लायें॥
-००-
- विजय तिवारी " किसलय "

सोमवार, 10 अगस्त 2009

उफ ये कैसे, गरमी के दिन

लगे न शीतल,
भोर सुहानी ।
स्वेद निकल खुद,
कहे कहानी ॥


शाम ढले,
गाँवों में फैले।
धूलि-कणों की,
अलग जुबानी ॥


नींद उड़ाती,
गरम हवायें।
कटती रातें,
तारे गिन ।।


उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥


शीतल छाया,
भाती सबको ।
धूप सताये ,
दिन में सबको ॥


जीव-जगत,
व्याकुल हो जाता।
तरस नहीं क्यों,
आता रब को ॥


श्रमिकों का श्रम,
बाहर करना।
हो जाता है,
बड़ा कठिन ॥


उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥


उगले सूरज,
ज्वाला सी जब ।
सूख बिखरती,
हरियाली सब ॥


कूप, नदी,
तालाबों का जल।
हो जाता है,
और दूर तब ॥


वन, उपवन गर,
रहे उजड़ते।
जायेंगी सब,
खुशियाँ छिन ॥


उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥


- विजय तिवारी " किसलय "

रविवार, 28 जून 2009

विजय नम्रता ने ही पाई


आप सभी के लिए एक आद्याक्षरी विधा की कविता प्रस्तुत है :-
(कविता स्पष्ट पढने के लिए उपरोक्त बॉक्स को क्लिक करें।)
- विजय

बुधवार, 4 मार्च 2009

मातृ सेवा

क़र्ज़ माँ का है बड़ा, जानते ये हम सभी
हैं बहुत उपकार इसके, हम न गिन सकते कभी

कष्ट में देखे हमें तो, रोएँ इसके भी नयन
सारे दिन की छोड़िए, रात न करती शयन

आज भी सारे जहाँ का , एक ही मंतव्य है
मातृ सेवा हर युगों का, श्रेष्ठतम कर्तव्य है

ईशभक्ति में न शक्ति, माँ की सेवा में जो है
स्वर्ग न आनंद देता, मातृ सेवा में वो है

अपनी माँ को भूलता जो, वह बड़ा ख़ुदग़र्ज़ है
मातृ सेवा इस जहाँ में , हर मनुज का फ़र्ज़ है
- विजय तिवारी "किसलय"

मंगलवार, 3 मार्च 2009

छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

टेसुओं के रंग ने,
भीगे हर अंग ने
दिलों की दीवानगी
फिर से बढ़ाई है /
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

साथियों के संग ने,
नेह भरी भंग ने /
चाहत चहकने की
फिर से जगाई है //
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

तन की उमंग ने,
मन के विहंग ने ,
सपनों की पालकी,
फिर से सजाई है //
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

प्रेम रूपी भृन्ग ने,
यौवन के शृंग ने ,
एक नई लीक आज,
फिर से बनाई है //
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

अंतस अनन्ग ने,
प्रीत की पतंग ने ,
ऊँचे उड़ने की आस,
फिर से लगाई है//
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

बंशी, ढोल, चन्ग ने,
मंजीरे मृदंग ने ,
मस्ती भरी थाप आज
फिर से सुनाई है //
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

फागुनी मलन्ग ने,
छिड़ी रंग- जंग ने ,
भाई चारे की फुहार,
फिर से उड़ाई है
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है

मौसमी तरंग ने,
प्रकृति के ढंग ने ,
सरिता बसंती आज,
फिर से बहाई है //
छटा ऋतुराज ने फ़िर से दिखाई है //

-डॉ विजय तिवारी "किसलय"

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

सोचो इस दुनिया में आकर,हमने क्या खोया क्या पाया

पैदा होते ही वर्षों तक,
घर वालों का बने खिलौना
बड़े प्यार से गए पुकारे,
राजा भैया, मुन्ना, छौना
जब-जब रोये या रूठे तो,
मीठी बातों ने बहलाया
सोचो इस दुनिया में आकर,
हमने क्या खोया क्या पाया

बालापन को खेल गँवाया,
विद्यालय जा शिक्षा पाई
आदर
,रीति,नीति,मर्यादा,
सीखी
सब, जिसने सिखलाई
पाकर अनुभव लगे समझने,
कौन हमारा, कौन पराया
सोचो इस
दुनिया में आकर,
हमने क्या खोया क्या पाया

मि
ली जो रोजी, बीबी-बच्चे,
बनी पहेली दुनियादारी
लगे छूटने धीरे-धीरे,
भाई-बहन, बाबा-महतारी
अंतस की बातें मानी,
स्वजनों
को जब तब ठुकराया
सोचो इस दुनिया में आकर,
हमने क्या खोया क्या पाया

ख़ुद में ही मशगूल रहे हम,
कभी बड़ों की सीख मानी
दुहरा
जब गई कहानी,
तब रिश्तों की कीमत जानी
एकाकी जीवन जी जी कर ,
अपने मन को नित भरमाया
सोचो इस दुनिया में आकर,
हमने क्या खोया क्या पाया

वय के अन्तिम छोर पहुँचकर,
मुडकर देखा तो क्या देखा
चार दिनों में नहीं बदलता,
हानि-लाभ, कर्मों का लेखा
जीवन का बस यही फलसफा,
वैसा फल जो पेड़ लगाया
-विजय तिवारी "किसलय "

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ

बचपन की प्यारी स्मृतियाँ, आँखें नम कर जातीं है.

गलती कर पहलू में तेरे, छिपना याद दिलातीं हैं॥

इन खट्टी-मीठी बातों की,कथा सुनाने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ



तन से दूर भले हूँ लेकिन, मन से कभी रहा न दूर।

मुझे ख़बर है तनिक कष्ट भी,तुमको रहा नहीं मंजूर॥

अब तक बढे फासलों का तुम, अंत कराने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ



घर से दूर बसा हूँ तब से, सोच तुम्हारी बदल गई।

यहाँ हमारी मजबूरी ने, रच दी दुनिया एक नई॥

लेकिन सुलह वक्त से कर अब, नेह जताने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ



माँ तुमसे दूरी को लेकर, बात हमेशा चलती है।

गाँव में रहने की जिद भी, अक्सर मन को खलती है॥

मेरे जीवन में खुशियों के, दीप जलाने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ



माना तेरी उम्मीदों पर, खरा नहीं मैं उतरा हूँ।

लेकिन तुमको कहाँ पता मैं,किस पीड़ा से गुजरा हूँ॥

हाथों का स्पर्शी-मरहम, मुझे लगाने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ



मुझको जीवन देकर तुमने, अपना फ़र्ज़ निभाया है।

तेरी सेवा न कर अब तक, ख़ुद पर क़र्ज़ बढाया है॥

कैसे बनूँ कृतज्ञ तुम्हारा, राह बताने आ जाओ।

ममता के आँचल में फ़िर से, मुझे सुलाने आ जाओ




- विजय तिवारी "किसलय "

जबलपुर म प्र ( भारत ) इंडिया

मोबाइल :- ०९४२५३२५३५३.












रविवार, 25 जनवरी 2009

-मर करेंगे नाम देश का,

-हकर बंधुभाव से हम।

वि -जय-पताका फहरायेंगे,

न् -याय भावना की हरदम।।

-मन करेंगे भ्रष्टचारी,

कु -शाल नीति अपनायेंगे ।

मा -तृभूमि की रक्षा करने,

-ण से न घबरायेंगे ॥

-किसलय

बुधवार, 7 जनवरी 2009

बर्दाश्त की भी हद होती है, चाहे वो आतंकवाद हो या फ़िर शान्तिमार्ग .

"अतिसर्वत्रवर्जयेत " चाहे वो आतंकवाद हो या फ़िर शान्तिमार्ग .
एक श्लोक है ----
खलानां , कण्टकानां प्रतिक्रियाः द्विविधिः
उपानंगो मुखभंगो या दूर ते विसर्जनं

अर्थात खल (साँप या दुष्ट ) और काँटों से निपटने की दो विधियां हैं -
पहला या तो उनके मुँह को अपने जुटे से कुचल दो अथवा उन्हें दूर से ही छोड़ दो.
लेकिन हम तो दोनों विधियों में से किसी एक पर भी अमल नहीं कर रहे हैं.
- विजय

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

किसलय की कुण्डलियाँ

नहीं होते ऐसे काम

सियाराम की कृपा से, मैं प्रसन्न हूँ आज
सुनी आपकी कुशलता, है मुझको ये नाज़
है मुझको ये नाज़ , आगे भी कुशल रहोगे

लिखकर चिट्ठी आप, आगे का हाल कहोगे

पत्रोत्तर में पढा ये , चल रहा आपका काम
लेखन के इस कार्य को, सफल करें सियाराम

काम आपका चल रहा, आप वहाँ हैं व्यस्त
शरद ऋतू के असर से ,हूँ जुखाम से ग्रस्त
हूँ जुखाम से ग्रस्त, सिर चकराता रहता
आप यदि होते यहाँ, कुछ मीठी बातें करता
ये सब बातें सोचता, पर तुम्हें कहाँ आराम
किसलय जी कहते यही,नहीं होते ऐसे
काम
- विजय तिवारी " किसलय "