भोर सुहानी ।
स्वेद निकल खुद,
कहे कहानी ॥
शाम ढले,
गाँवों में फैले।
धूलि-कणों की,
अलग जुबानी ॥
नींद उड़ाती,
गरम हवायें।
कटती रातें,
तारे गिन ।।
उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥
शीतल छाया,
भाती सबको ।
धूप सताये ,
दिन में सबको ॥
जीव-जगत,
व्याकुल हो जाता।
तरस नहीं क्यों,
आता रब को ॥
श्रमिकों का श्रम,
बाहर करना।
हो जाता है,
बड़ा कठिन ॥
उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥
उगले सूरज,
ज्वाला सी जब ।
सूख बिखरती,
हरियाली सब ॥
सूख बिखरती,
हरियाली सब ॥
कूप, नदी,
तालाबों का जल।
हो जाता है,
और दूर तब ॥
वन, उपवन गर,
रहे उजड़ते।
जायेंगी सब,
खुशियाँ छिन ॥
उफ ये कैसे,
गरमी के दिन ॥
13 टिप्पणियां:
उमस भरी गर्मी पड़े, मनवा है बेचैन।
वर्षा से ठण्डक मिले, सुख से बीतें रैन।
सुन्दर रचना है।बधाई।
garmi ke mausam ka sahi chitran kiya hai........badhayi
bahut hi sundar rachnaek dam sahityak
dil se badhai!
Lagta hai bhaut jyada garmi pad rahi hai vahan ..[:)]..bahut sunder chitran hai Badhai aapko.
बहुत बढिया रचना .. कुछ दिन आप भी अनियमित थे यहां पर .. मैं तो अनियमित थी ही .. सुदर लेखन के दिए बधाई !!
गर्मी के मौसम पर केन्द्रित कविता अच्छी लगी। वर्षा नहीं होने से जो हालत सुबह से शाम तक एक आम आदमी की हो रही है उसका अच्छा चित्रण कविता में किया गया है।
sach main gamri itni hi kashtdaayi hai
ki subah bhi sheetal nahi lagti
bahut hi sunder rachna
bahut hi achhi rachna
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना ...
अच्छी भाव पूर्ण व यथार्थ नव-गीत रचना है,बधाई,विजय जी।
garami ke dino ka khoobsurat chitran kiya hai.
यह कविता भी पूरे भाव से पढ़ी, इसके पूर्व की गई कविता पर टिप्पणी भी इसी के लिये रखना चाहूँगा।
''प्रकृति के कवि''
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