अभी पिछले दिनों सदानंद जी मुझे अपने निजी काम के सिलसिले में ले जाने के लिए चौराहे पर रिक्शे वाले की प्रतीक्षा का रहे थे । उनकी व्याकुलता को देखकर मैंने जब उनसे कहा- सदानंद जी हम ऑटो / टैक्सी से भी तो चल सकते हैं ?तब उनहोंने बड़ी सहजता से कहा-नहीं रमेश ! ऐसी कोई बात नहीं है, लेकिन मेरा सिद्धांत है कि यदि हम रिक्शे से चलेंगे तो एक गरीब को मजदूरी मिल जायेगी, जिसकी उसे सख्त जरूरत होती है ।उनकी बात सुन कर मैंने मन ही मन उनकी महानता को नमन कर लिया . मुझे लगा कि वे गरीबों के प्रति कितनी हमदर्दी रखते हैं . जब ये बात मैं अपने मित्र को बता रहा था तो उसने आश्चर्यचकित होकर मुझे आप बीती बताई - लेकिन मैं एक बार अपने काम से सदानंद जी को रिक्शे पर बैठाकर ले जाना चाहता था तब उन्होंने तो मुझ से ऐसा कहा था कि सुरेश ! हम रिक्शे नहीं ऑटो / टैक्सी से चलेंगे, क्योंकि जब भी मैं रिक्शे पर बैठता हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि बैल - घोडे जैसे निरीह प्राणियों की जगह आदमी बैलगाडी या तांगा खींच रहा हो ! भले ही मजबूरी और पेट की आग बुझाने के लिए उसे ये सब करना पड़ रहा हो, लेकिन मेरी आत्मा तो कराह उठती है। सदानंद की वाक्पटुता से दोनों मित्र परिचित तो थे ही, लेकिन आज उन दोनों को ख़ुद के और पराये पैसे की अहमियत का पता चलगया।
- डॉ विजय तिवारी 'किसलय '
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