भाई समीर लाल ’समीर’ की पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ पर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार एक तरह से संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है. अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार उन्होंने संस्कारधानी जबलपुर में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्यपालक निदेशक इंजी पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंसी भारत में एवं मेनेजमेंट एकाउंटेंसी अमेरीका से की. सन १९९९ के बाद आप कनाडा के ओंटारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह ’मोहे बेटवा न कीजो’ के साथ ही वर्ष २००९ में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
(कृति आवरण) |
हिन्दी और हिन्दुस्तान से दूर समन्दर पार कनाडा में अपनों की कमी का अहसास आज भी समीर जी को कचोटता है. इसी कसक ने समीर जी को पहले ई-कविता के याहू ग्रुप से जोड़ा और बाद में ब्लाग्स के आने पर आप अपने हिन्दी ब्लॉग ’उड़न तश्तरी’ के माध्यम से संपूर्ण विश्व के चहेते बने हुए हैं. ब्लागरों के बादशाह समीर भाई के ब्लॉग को विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग सम्मान भी प्राप्त हो चुका है. आप विश्व के शीर्षस्थ ब्लागर हैं. ब्लॉग पर आपकी जादुई कलम की पूरी दुनिया कायल है. इसके साथ ही टोरंटो कनाडा एवं अमेरीका से निकलने वाली पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ के आप नियमित व्यंग्यकार हैं. आप कनाडा में हिन्दी रायटर्स गिल्ड एवं अन्य संस्थाओं के शताधिक सदस्यों के साथ मासिक कथा एवं काव्य गोष्ठियों सहित अन्य कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.
(श्री गिरीश बिल्लोरे, समीर लाल, डॉ हरि शंकर दुबे, प्रो ज्ञान रंजन, इंजी पी के लाल एवं वक्तव्य देते हुये विजय तिवारी 'किसलय' ) |
अब हम बात करते हैं ’देख लूँ तो चलूँ’ कृति की. वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लागर श्री पंकज सुबीर जी के शिवना प्रकाशन सीहोर, मध्य प्रदेश, भारत से प्रकाशित यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ चौदह उपखण्डों में लिखी संस्मरणात्मक, वैचारिक, तात्कालिक अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्तियों का संग्रह है. लेखक ने विवरणात्मक शैली को अपनाकर सामाजिक सरोकार, विषमताएँ, सामाजिक, धार्मिक, व्यक्तिगत, प्रशासनिक कठनाईयों का चित्रण करते हुए पाठकों के साथ तादात्म्य बैठाने में सफलता प्राप्त की है.
मित्र के गृह-प्रवेश की पूजा में अपने घर से ११० किलोमीटर दूर कनाडा की ओंटारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल-पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से, पाठक पाठक से सीधा वैचारिक सेतु बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही हैं.
कृति का पहला उपखण्ड मांट्रियल की पूर्वयात्रा से प्रारम्भ होता है जिसमें उनकी सहधर्मिणी साथ होती हैं परन्तु यह यात्रा उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है. बस यहीं से उनकी विचार यात्रा भी शुरु होती है. यात्रा के दौरान आये विचारों को श्रृंखलाबद्ध कर समीर जी ने पाठकों के साथ सीधा सम्बन्ध बनाया है. कहीं वे सिगरेट पीती महिला को सिगरेट पीने से रोकना चाहते हैं तो कहीं कनाडा में बसे पुरोहित के तौर तरीके बताते हैं. गाँव का चित्रण, फर्राटे भरती गाडियाँ अथवा ट्रेफिक नियमों की बातें जो भी सामने आया, उसको पाठकों के समक्ष चिन्तन हेतु रखा गया है. अप्रवासी भारतीयों के एकत्र होते ही बस भारत की बातें करना और जड़ से जुड़े रहने की लालसा प्रमुख मुद्दा होता है. परन्तु समीर जी इसे घड़ियाली आँसू करार देते हुए कहते हैं कि इसके लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिये.
अगले क्रम में लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई-वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बालशोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है. आगे आप महिलाओं के तथाकथित फिगर कान्सियसनेस को महत्व नहीं देते तो कहीं वे अमेरीका को देश के बजाय कन्सल्टेंट कहना ज्यादा उपयुक्त मानते हैं क्योंकि वह अपनी छोड़ दूसरों को सलाह देता है. इसके पश्चात ’देख लूँ तो चलूँ’ का ऐसा उपखण्ड आता है जिसमें समीर जी पर हरिशंकर परसाई जी की छाप प्रतीत होती है क्योंकि उन्हीं ने कहीं बताया है कि बचपन में अध्ययन के दौरान उनके हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था और उनका स्पर्श आज भी वे महसूस करते हैं.
भारत से कनाडा की यात्रा के वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन सपत्नीक रुकने पर भाषाई अनभिज्ञता के चलते अन्तरराष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव में शामिल होने का व्यंग्यात्मक वृतांत बड़ा रोचक बन पड़ा है. आपका ध्यान साधू संतो के ढोंग पर भी जाता है. धन की जीवन में कोई महत्ता न बतलाने वाले यही साधु इसी सलाह या प्रवचन के लाखों रुपये स्वयं बतौर फीस ले लेते हैं. आगे अप्रवासी भारतीयों के माँ बाप की भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण है जो माँ-बाप अपने बेटों को अपना पेट काट कर विदेश भेजते हैं उन बेटों की मानसिकता किस कदर गिर जाती है. ऐसा अक्सर देखने मिलता है.
’देख लूँ तो चलूँ’ का दसवाँ उपखण्ड तो आध्यात्मिक चिन्तन जैसा है जिसमें आर्ट ऑफ लिविंग के स्थान पर आर्ट ऑफ डायिंग की सिफारिश की गई है क्योंकि अधेड़ावस्था के पश्चात जीने की कला अधिकांश लोग सीख ही लेते हैं. यह उम्र तो आर्ट ऑफ डायिंग सीखने की होती है कि हम अपनी जवाबदारियों को पूरा करते हुए खुशी खुशी किस तरह इस दुनिया से कूच करें. महात्माओं द्वारा मुक्ति के लिए ’चाहविहीन’ होने की बात भी समीर जी की समझ के परे है क्योंकि मुक्ति का मार्ग पाना भी तो चाह ही है फिर कोई चाह विहीन कैसे हो सकता है? आगे फिर दिल को छू जाने वाला मार्मिक प्रसंग है, जब घर के पेड़ पर टाँगे गए ’बर्ड फीडर’ से पक्षियों को दाने खिलाकर समीर जी आत्म संतुष्टि को प्राप्त करते हैं परन्तु जब एक दिन बिल्ली द्वारा एक पक्षी को अपना शिकार बना लेने वाली मनहूस घड़ी आती है तो इसके लिए लेखक कहीं न कहीं स्वयं को दोषी मानता है और अपराध बोध से ग्रसित जाता है. ड्रायविंग में हार जीत को लेखक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि एक जीतता है तो दूसरा उसके भी आगे होता है या पीछे वाले के पीछे भी कोई होता है. स्तरहीन राजनीति और नेताओं की तुलना कुत्तों से करने पर भी समीर जी नहीं चूकते. तेरहवें खंड में लेखक के अनुसार मित्र के घर पर गृहप्रवेश की पूजा के दौरान अंग्रेजी अनुवाद और अंग्रेज परिवारों की उपस्थिति, पुरोहित और यजमान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होती. लंच के दौरान अंग्रेज परिवारों को भारतीय रेसिपी बनाने का तरीका बताना प्रवासी अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं. अंग्रेज के माथे पर तिलक लगाना या उनके द्वारा नमस्ते कहना हमें फक्र महसूस कराता है परन्तु क्या हमने कभी सोचा कि क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं? समीर जी के ऐसे कई तर्क दिल के अंतिम छोर तक उद्द्वेलित करते हैं.
अंत में लेखक अपने साहित्य लेखन की वर्तनी की त्रुटियाँ खोजने वाली, वाक्य विन्यास की गल्तियों को सुधार कर ईमेल करने वाली किसी मित्र के बारे में बताते हैं कि वह मुझे नहीं, मेरी लेखनी को पसंद करती है. वह मुझसे कभी रू-ब-रू मिल नहीं सकी किन्तु मुझे आज भी याद आई.
इस तरह हम देखते हैं कि समीर जी अपनी बात कहीं से भी शुरू करें, बखूबी अपना संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं. ‘देख लूँ तो चलूँ’ उनके बहुआयामी लेखन का नमूना कहा जा सकता है. दस्तावेजों की उनसे सदा अपेक्षा रहेगी. इन्सानियत, प्रेम, भाईचारा, संवेदनशीलता के साथ-साथ एक विराट दायरे वाली सख्शियत का प्रतिनिधित्व करते हुए भाई समीर अपने लेखन से स्वयं आकाशीय नक्षत्रों जैसे शीर्षस्थ एवं प्रकाशवान बनें.
आप संस्कारधानी जबलपुर का नाम भी दुनिया में रौशन करेंगे, इसी आशा एवं विश्वास के साथ ...
-विजय तिवारी ' किसलय '
20 टिप्पणियां:
समीर की लेखनी से बहुत प्रभावित हूँ..... आपने इस आयोजन और समीरजी के बारे में इतनी जानकारी दी आभार ..... 'देख लू तो चलूं' के लिए उन्हें बधाई ...... आपका धन्यवाद इस सुंदर रिपोर्ट के लिए
भूल सुधार- *समीरजी
door chitij se kahte kahte'
kaise poochun kahan milunn...
ghoom ghoom kr kah dalli hai
us samaj ko thoda ' dekh lo to chalu.
pustak vimochan pr hamari hardik badhai..
vkacao@gmail.com.. Blooger:- ASPANDAN
बहुत सुन्दर समीक्षा कर डाली है रचना और रचनाकार की.
समीर जी को बधाई और आपका आभार इतनी सुन्दर विवेचना के लिये।
स्नेहिल डॉ.मोनिका जी,
प्रिय शिखा एवं वंदना,
आदरणीय विष्णुकांत मिश्र जी,
मेरे चिटठा पर आकर अपनी टीप देने का
आभार स्वीकारें.
वैसे मैं इतनी तारीफ़ का हकदार नहीं हूँ,
मगर आप सबके स्नेह का आकांक्षी अवश्य हूँ.
क्योंकि आपके शब्द ही नूतन सृजन के बीज होते हैं.
- विजय तिवारी ' किसलय '
बहुत बहुत आभार आप सबके स्नेह का.
आदरणीय तिवारी जी,
आपने बहुत ही सुन्दर रिपोर्ट पेश की। पिछली रिपोर्टें भी बहुत अच्छी रहीं थीं पर ये कुछ खास ही है। बवाल जी ने क्या कहा ये पढ़ने नहीं मिलेगा क्या डॉ.साब ? समीर जी को हमारी तरफ़ से एक बार फिर बधाई।
बहुत विलक्षण पुस्तक है...मैंने पढनी शुरू की तो ख़तम किये बिना उठ ही नहीं सका...रोचकता के साथ साथ हमारे परिवेश और सोच पर बहुत ख़ूबसूरती से कटाक्ष करती है ये किताब...समीर जी की जितनी तारीफ़ की जाए कम है...
नीरज .
Bahut sundar sameeksha! Ab kitab padhnee hee padgee!
Gantantr diwas kee anek shubhkamnayen!
समीर जी के लिए बधाई ..आपने बहुत अच्छी और विस्तृत विवेचना कि है ....इसके लिए आभार
....समीरजी के बारे में विस्तृत जानकारी आपने उपलब्ध कराई, धन्यवाद डॉ.तिवारी!!....बहुत बहुत बधाई समीरजी!
अच्छा प्रस्तुतीकरण है.
समीक्षा अच्छी लगी.
-ज्योति
समीर जी को बधाई
समीक्षा के लिए धन्यवाद.
आदरणीय किसलय जी, बहुत अच्छा आयोजन संपन्न किया है आप लोगों ने. नयी पुस्तक के प्रकाशन पर समीर भाई को अनेकानेक बधाइयाँ और शिवना प्रकाशन को भी! ज्ञान जी की उपस्थिति समारोह को गरिमा प्रदान कर रही है. आपकी रपट रोचक और जानकारीपूर्ण है.
आदरणीय किसलय जी, बहुत अच्छा आयोजन संपन्न किया है आप लोगों ने. नयी पुस्तक के प्रकाशन पर समीर भाई को अनेकानेक बधाइयाँ और शिवना प्रकाशन को भी! ज्ञान जी की उपस्थिति समारोह को गरिमा प्रदान कर रही है. आपकी रपट भी रोचक और जानकारीपूर्ण है- विजयशंकर चतुर्वेदी
देख लूँ तो चलूँ के विमोचन पर समीर लाल को बहुत बहुत बधाई.
विजय तिवारी जी ,
समीर जी की पुस्तक विदेश में बसे एक भारतीय की मनोदशा और हालात का सही चित्रण है । उन्होनें बहुत सही लिखा कि विदेसों में बसे भारतीय जब मिलते हैं तो कैसे घड़ियाली आंसू बहाते हैं । पुस्तक तो नहीं पढ़ी समीक्षाही बताती है कि कितनी रोचक होगी ।
समीर जी म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्यपालक निदेशक इंजी पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं.जान कर अच्छा लगा.
आपको धन्यवाद .....समीर जी की पुस्तक पर जानकारीपूर्ण इस रिपोर्ट के लिए.
आपके विचारों का मेरे ब्लॉग्स पर सदा स्वागत है।
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