प्रायः यह देखा गया है कि हमारे समाज में वृद्धों की स्थिति अधिकाँशतः दयनीय ही होती है, भले ही वे कितने ही समृद्ध एवं सभ्य क्यों न हों . उनकी संतानें उनके सभी दुख-सुख एवं उनकी समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाते, ये मैं नहीं बताना चाहूँगा कि इनके पीछे कौन कौन से तथ्य हो सकते हैं. जिस वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती है या उनका मन चाहता है वे आसानी से प्राप्त नहीं कर पाते, तब उनके मन एवं मस्तिष्क में उस कमी के कारण चिंता के बीज अंकुरित होने लगते हैं जो उनके के लिए घातक सिद्ध होते हैं. वैसे भी आधुनिक युग में वृद्ध अपनी जिंदगी से काफ़ी पहले ऊब जाते हैं. अधिकतर वृद्धों के चेहरों पर मुस्कराहट या चिकनाहट रह ही नहीं पाती . उनका गंभीर चेहरा उनके स्वयं की अनेक अनसुलझी समस्याओं का प्रतीक सा बन जाता है. उनकी एकांतप्रियता भी दुखी हृदय का द्योतक होती है.
इस तरह की परिस्थितियाँ वृद्धावस्था में ही क्यों आती हैं? बचपन और जवानी के दिनों में क्यों नहीं आतीं ? इनके बहुत से कारणों को आसानी से समझा जा सकता है. बचपन में संतानें माता - पिता पर आश्रित रहती हैं. उनका पालन - पोषण, शिक्षा - दीक्षा एवं नौकरी - चाकरी तक माँ - बाप लगवा देते हैं. इतने लंबे समय तक बच्चों को किसी भी प्रकार की कमी नहीं होती. प्रत्येक चाही-अनचाही आवश्यकताओं की पूर्ति माता - पिता ही करते हैं. बच्चे जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते - पहुँचते अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं और अपने परिवार का भी दायित्व निर्वहन करने में सक्षम हो जाते हैं. अपनी इच्छानुसार अनेक मदों में धन का व्यय करके अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं.
इन्हीं परिस्थितियों एवं समय में वही परंपरागत वृद्धावस्था की समस्या अंकुरित होने लगती है । जब वृद्ध माता - पिता के ख़ान-पान , उनकी उचित देख-रेख और उनके सहारे की अनिवार्य आवश्यकता होती है तभी वे संतानें जिन्हें रात-रात भर जागकर सुलाया, खुद ही इनके मूत्र भरे गीले कपड़ों में सोकर इन्हें सूखे बिस्तर में सुलाया। इनका पालन - पोषण और प्रत्येक इच्छाओं को पूरा करते हुए पढ़ाया- लिखाया तथा रोज़ी-रोटी से लगाया । उनका विवाह कराया ,उनके हिस्से के सारे दुखों को खुद सहा और वह केवल इसलिए की वे खुश रहें और वृद्धावस्था में सहारा बनें,परंतु आज की अधिकतर कृतघ्न संतानें अपने माता - पिता से नफ़रत करने लगती हैं। उनकी सेवा सुश्रूषा से दूर भागने लगती । उनकी छोटी छोटी सी अनिवार्य आवश्यकताओं को भी पूरी करने में रूचि नहीं दिखातीं ऐसी संतानों को क्या कहा जाए जो उनसे ही जन्म लेकर अपने फ़र्ज़ को निभाने में कोताही करते हैं। उनकी अंतिम घड़ियों में उनकी आत्मा को शांति नहीं पहुँचाती
आज ऐसी शिक्षा कि आवश्यकता है जिसमें माता - पिता के लिए भावनात्मक एवं कृतज्ञता की विषयवस्तु का समावेश हो । आवश्यकता है पाश्चात्य संस्कृति के उन पहलुओं से बचने की जिनकी नकल करके हम अपने माता - पिता की भी इज़्ज़त करना भूल जाएँ.वहीं दूसरी ओर समझाईस के रूप में यह भी आवश्यक है की वृद्ध माता - पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप हानिकार ही होगा. अतः बात -बात पर, समय- असमय, अपनी संतानों को भला - बुरा अथवा अपने दबाव का प्रभाव ना ही बताना श्रेयस्कर होगा अन्यथा वृद्धों की यह परंपरागत समस्या निराकृत होने की बजाय भविष्य में और भी विकराल रूप धारण कर सकती है.
- विजय तिवारी "किसलय "
(पाठकों से निवेदन है कि वे इस आलेख को संकेतात्मक स्वीकार करें , अपवाद तो हर जगह संभव हैं)
10 टिप्पणियां:
विचारणीय विश्लेषणात्मक आलेख. निश्चित ही अपवाद तो हर जगह होते ही है किन्तु एक बड़ी बुजुर्ग आबादी इससे जुझती है और यह क्रम पुश्त दर पुश्त चलता जा रहा है. यह कोई आज की समस्या नहीं. शायद अनुपात बढ़ा होगा बस!!
विचारणीय आलेख है।लेकिन अब तो लगता है कि इस समस्या का निदान मात्र वृदाश्रम ही रह गया है।यही आज की पीडी़ की ज्यादातर सोच है।
गंभीर विषय है
आभार
aapne bilkul sahi farmaya hai.........samasya to kal bhi thi aaj bhi hai aur kal bhi rahegi jab tak hum sab apni soch mein parivartan na karein phir chahe wo bachche hon ya vriddh.
कहीं पढ़ा था कि बूढ़े और गरीब को कोई नहीं पूछता। आपका कहना बिलकुल सही है। लेकिन इसका निदान कैसे हो? मुझे लगता है कि इसके लिये माता-पिता और संतानों - दोनों को ही मिलकर चलना होगा।
आपके आलेख ने सूरज भाई के एक रचना की याद दिला दी है
'सुबह से मेरे पास में बैठे,दर्द भी मेरा बांटा है .
ये भी नहीं कहा कि बूढा तो इस घर का काँटा है.
दावे से मैं कह सकता हूँ, आज पेंशन का है दिन
आज मेरी खातिर बेटे ने बहू को देखो डांटा है!'
भाई ,आज के इस संवेदनाशून्य वातावरण में औलाद अपने माँ-बाप को भी हासिये में रखने पे उतारू है यह बात सचमुच चिंतनीय है.जबकि सभी को एकदिन बुढापे का सामना करना है. अस्तु ऐसी औलाद के विषय में तो यही कहा जा सकता है की
"अपने माँ-बाप के ओ तल्ख़ तजुर्बात सुनो
अपनी औलाद से तुमको भी तो डरना है अभी "
सुधीर
kaaphi achchha lekh ....samaajik dayitw ko pradarshit karta hua lekh ..shaayad is lekh ka asar kuchh logo par pade.....
"माता - पिता को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि संतान के परिपक्व होने के पश्चात उसे अपनी जिंदगी जीने का हक होता है "
विचारणीय पोस्ट .सभी को गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए आपके आलेख से शतप्रतिशत सहमत हूँ.
भाई जी अभिवादन!!
इसे मैं कहीं न कहीं संस्कारों में हुई त्रुटि ही मानती हूँ ..........
जब आप माता पिता की सेवा करते हैं तो बच्चों में एक संस्कार जोड़ते हैं ,स्वयं को परखना आवश्यक है .एक विचारणीय प्रस्तुति .....
लेखन के लिए शुभकामनाएं......
बहुत पुरानी समस्या है । वर्तमान मे इसका स्वरूप और ज्यादा बढ गया है ।
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