बिना स्पंदन
रहते खड़े
कई पल मौन,
पीले पड़ते तन,
कपड़ों सी
बदलते छाल,
रहते खड़े
कई पल मौन,
पीले पड़ते तन,
कपड़ों सी
बदलते छाल,
निज पर्ण
विलग होने का दुख,
दे जाता संत्रास...
हिल जातीं शाख।
फिर लगता
बदलेगा जीवन,
तभी लेकर
नव संकल्प,
नव जीवन
जीने को आतुर
ले अंगड़ाई-सी,
उत्साहित हो
फिर लहराते सपर्ण
होता दुख का अंत......
पुलकित
होती संध्या-
भोर मन हिरण
मचाता शोर
वृक्ष सजाते सुंदर रूप
दिखने लगते दृश्य अनूप
- डॉ विजय तिवारी "किसलय"
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