मैं विगत १४ अप्रेल २०१२ यानि उनके जन्मदिन के एक दिन पहले सुबह- सुबह उनके घर गया और काफी देर तक बातें करता रहा. जैसाकि मैं उनका जन्म दिन यानी १५ अप्रेल कभी नहीं भूलता था , इसलिए उसी सिलसिले में उनसे बातचीत करता रहा. जब मैंने दादा से पूछा किआप कल शाम को क्या कर रहे हैं , और मुझे पता चला कि वे उपलब्ध हैं तो मैंने उन्हें अगले दिन अर्थात १५ अप्रेल की शाम को आमंत्रित किया और शाम को फुर्सत होते ही एक फोन करने को कहा , ताकि मैं उन्हें लेने जा सकूँ.
१५ की शाम को मैं और राजीव गुप्त जी उनके फोन का इंतज़ार करते रहे जब उनका फोन नहीं आया तो मुझे चिता हुई , क्यों कि वे इस समय घर पर नहीं होते और वे अपने पास मोबाईल भी नहीं रखते तो मैं और गुंजन कला सदन के संस्थापक श्री ओंकार श्रीवास्तव जी ने उनके घर जाने का निश्चय किया.
हमने एक किलो उनका पसंदीदा भुजिया सेव पेक कराया और उनके घर जा पहुँचे तो देखा कि वे छत के ऊपर मच्छर दानी लगे पलंग पर आराम कर रहे हैं. काफी देर तक हम लोग उनसे बातचीत करते रहे .
एक ओंकार दूसरे ओंकार से मिलकर बहुत खुश हुए. उस दिन उन्होंने मेरे घर आने का वायदा भी किया . पर ईश्वर ने उन्हें ये वायदा पूरा करने नहीं दिया. २२ अप्रेल को ज्ञात होने पर कि उन्हें श्वांस की तकलीफ होने पर अस्पताल में भारती कराया गया है तो मैंने भी अस्पताल पहुंचा. स्वास्थ्य तो ठीक नहीं था लेकिन पूर्ण चैतन्यता थी, काफी बातचीत कर रहे थे . शायद इसी लिए वे अपनी जिद पर अगलेदिन घर आ गए, लेकिन जब पुनः २५ को भर्ती हुए तो वे ज्यादा अस्वस्थ्य हो गए २६ को दोपहर में एक हल्के हृदयाघात से उन्हें बचाया नहीं जा सका.
इसी दिन शाम को स्थानीय रानी ताल मुक्तिधाम में नगर के गण्य मान जनों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार संपन्न हुआ.
श्री ओंकार ठाकुर के परम मित्र हैं श्री निर्मल भूरा जी. भूरा जी ईश्वर की कृपा से लब्ध-प्रतिष्ठित सामाजिक , धार्मिक व्यक्तित्व वाले एक सहज इंसान हैं . आपमें कभी गर्व नाम की चीज कभी नहीं दिखी. दूसरी और एकाकी जीवन जीने वाले सामान्य परन्तु आदर्श और - गार्हस्थ्य जीवन में भी तपस्वियों का जीवन जीने वाले ओंकार ठाकुर जी थे. दोनों की कृष्ण-सुदामा ( भूरा जी ऐसा नहीं मानते) जैसी दोस्ती अंतिम दिन तक रही . मैं तो कहना चाहूँगा कि "फिरंगिया" और "पीला रूमाल" उपन्यासों के लेखक श्री ओंकार ठाकुर अंत तक "निर्मल" मय रहे.
सन १९५१ के माडेलियन (मॉडल स्कूल से उत्तीर्ण छात्र ) एवं १९५७ के एम. एस-सी.(बाटनी) श्री ओंकार ठाकुर का जन्म १५ अप्रेल १९३३ में जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ. जबलपुर को ही कर्मस्थली मान कर जीवन भर साहित्य साधनारत रहे हैं.जीवन के ७९ वर्ष विगत १५ अप्रेल को पूरे करने वाले श्री ठाकुर जी अंतिम समय तक संयमित जीवन जी रहे। सन १९४८ से प्रारंभ लेखन अंतिम समय तक अबाध गति से चलता रहा. साहित्य शिखर की ओर बढ़ते हुए सन १९६५ की फरवरी में अपनी स्वयं की पत्रिका शताब्दी निकालना प्रारंभ किया जो जून १९८२ तक लगातार प्रकाशित होती रही. राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों की रचनाये प्रकाशित करने वाली मध्य प्रदेश की "शताब्दी" का प्रकाशन अवधि में अहम् स्थान था. साहित्य की समस्त विधाओं में पारंगत, साहित्यकार, पत्रकार, सम्पादक, कवि, उपन्यासकार, हिदी-अंगरेजी-विज्ञान के व्याख्याता एवं अनुवादक श्री ओंकार ठाकुर की रचनाएँ देश की अधिकाँश चुनिन्दा पत्रिकाओं और पत्रों में निरंतर प्रकाशित होती रहीं हैं. देश के जाने माने साहित्यकारों का सानिध्य प्राप्त करने वाले श्री ठाकुर सदैव सहजता, सरलता,सादगी, सच्चाई, निश्छलता, गंभीरता एवं सहनशीलता के अनुगामी रहे .
१५ की शाम को मैं और राजीव गुप्त जी उनके फोन का इंतज़ार करते रहे जब उनका फोन नहीं आया तो मुझे चिता हुई , क्यों कि वे इस समय घर पर नहीं होते और वे अपने पास मोबाईल भी नहीं रखते तो मैं और गुंजन कला सदन के संस्थापक श्री ओंकार श्रीवास्तव जी ने उनके घर जाने का निश्चय किया.
हमने एक किलो उनका पसंदीदा भुजिया सेव पेक कराया और उनके घर जा पहुँचे तो देखा कि वे छत के ऊपर मच्छर दानी लगे पलंग पर आराम कर रहे हैं. काफी देर तक हम लोग उनसे बातचीत करते रहे .
एक ओंकार दूसरे ओंकार से मिलकर बहुत खुश हुए. उस दिन उन्होंने मेरे घर आने का वायदा भी किया . पर ईश्वर ने उन्हें ये वायदा पूरा करने नहीं दिया. २२ अप्रेल को ज्ञात होने पर कि उन्हें श्वांस की तकलीफ होने पर अस्पताल में भारती कराया गया है तो मैंने भी अस्पताल पहुंचा. स्वास्थ्य तो ठीक नहीं था लेकिन पूर्ण चैतन्यता थी, काफी बातचीत कर रहे थे . शायद इसी लिए वे अपनी जिद पर अगलेदिन घर आ गए, लेकिन जब पुनः २५ को भर्ती हुए तो वे ज्यादा अस्वस्थ्य हो गए २६ को दोपहर में एक हल्के हृदयाघात से उन्हें बचाया नहीं जा सका.
इसी दिन शाम को स्थानीय रानी ताल मुक्तिधाम में नगर के गण्य मान जनों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार संपन्न हुआ.
श्री ओंकार ठाकुर के परम मित्र हैं श्री निर्मल भूरा जी. भूरा जी ईश्वर की कृपा से लब्ध-प्रतिष्ठित सामाजिक , धार्मिक व्यक्तित्व वाले एक सहज इंसान हैं . आपमें कभी गर्व नाम की चीज कभी नहीं दिखी. दूसरी और एकाकी जीवन जीने वाले सामान्य परन्तु आदर्श और - गार्हस्थ्य जीवन में भी तपस्वियों का जीवन जीने वाले ओंकार ठाकुर जी थे. दोनों की कृष्ण-सुदामा ( भूरा जी ऐसा नहीं मानते) जैसी दोस्ती अंतिम दिन तक रही . मैं तो कहना चाहूँगा कि "फिरंगिया" और "पीला रूमाल" उपन्यासों के लेखक श्री ओंकार ठाकुर अंत तक "निर्मल" मय रहे.
सन १९५१ के माडेलियन (मॉडल स्कूल से उत्तीर्ण छात्र ) एवं १९५७ के एम. एस-सी.(बाटनी) श्री ओंकार ठाकुर का जन्म १५ अप्रेल १९३३ में जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ. जबलपुर को ही कर्मस्थली मान कर जीवन भर साहित्य साधनारत रहे हैं.जीवन के ७९ वर्ष विगत १५ अप्रेल को पूरे करने वाले श्री ठाकुर जी अंतिम समय तक संयमित जीवन जी रहे। सन १९४८ से प्रारंभ लेखन अंतिम समय तक अबाध गति से चलता रहा. साहित्य शिखर की ओर बढ़ते हुए सन १९६५ की फरवरी में अपनी स्वयं की पत्रिका शताब्दी निकालना प्रारंभ किया जो जून १९८२ तक लगातार प्रकाशित होती रही. राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों की रचनाये प्रकाशित करने वाली मध्य प्रदेश की "शताब्दी" का प्रकाशन अवधि में अहम् स्थान था. साहित्य की समस्त विधाओं में पारंगत, साहित्यकार, पत्रकार, सम्पादक, कवि, उपन्यासकार, हिदी-अंगरेजी-विज्ञान के व्याख्याता एवं अनुवादक श्री ओंकार ठाकुर की रचनाएँ देश की अधिकाँश चुनिन्दा पत्रिकाओं और पत्रों में निरंतर प्रकाशित होती रहीं हैं. देश के जाने माने साहित्यकारों का सानिध्य प्राप्त करने वाले श्री ठाकुर सदैव सहजता, सरलता,सादगी, सच्चाई, निश्छलता, गंभीरता एवं सहनशीलता के अनुगामी रहे .
विगत १५ अप्रेल सन २०१२ को अपने जीवन के यशस्वी ७९ वर्ष पूर्ण कर २६ अप्रेल २०१२ को अपरान्ह ३.१० बजे अल्प अस्वस्थता के चलते सांसारिक मायाजाल से मुक्त हो स्वर्ग सिधार गए ।
विनम्र श्रद्धांजलि सहित हम उनकी आत्म शान्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.
विनम्र श्रद्धांजलि सहित हम उनकी आत्म शान्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.
(श्री ओंकार ठाकुर के संपादकत्व में प्रकाशित
साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कला को समर्पित
पत्रिका " शताब्दी" का प्रवेशांक फरवरी- १९६५
तथा अंतिम अंक जून १९८२ के आवरण पृष्ठ । )
(१९७२ में प्रकाशित श्री ओंकार ठाकुर द्बारा ठग जीवन पर लिखे
गए एक सच्चे उपन्यास " फिरंगिया " का आवरण चित्र ।)
(सन १९६८ में श्री ओंकार ठाकुर अपनी माँ श्रीमती लक्ष्मी देवी के साथ।)
(सन १९५१ के श्री ओंकार ठाकुर )
- विजय तिवारी " किसलय "
4 टिप्पणियां:
ओह!! दुखद!! विनम्र श्रृद्धांजलि!!
acchi smrutiyo ke saath likha hua vrataant. ishwar unki aatma ko shaanti de.
श्री ओंकार ठाकुर जी के निधन से संस्कारधानी के साहित्य जगत को अपूरणीय क्षति हुई है . वे साहित्य जगत के प्रकाश पुंज थे . उनके निधन से मैं भी हतप्रद हूँ . मेरा उनसे बड़ा अंतरंग नाता था , मैं उन्हें मामाजी कहकर संबोधित करता था . प्रति सप्ताह उनसे कहीं न कहीं मुलाकात हो जाती थी . लेखन के क्षेत्र में वे हमेशा मेरा मार्गदर्शन करते थे . श्री ओंकार ठाकुर जी को विनम्र श्रद्धासुमन और हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित है .
ओंकार ठाकुर जी की स्मृति को नमन।
एक टिप्पणी भेजें