मंगलवार, 2 नवंबर 2010

नाटक के बहाने- ५ ( अंतिम) : निःस्वार्थ मित्रता के नए आयाम तय करता "यार बना बडी" नाटक : विवेचना राष्ट्रीय नाट्य समारोह २०१०.


(चित्र नई दुनिया जबलपुर से साभार)
समाज रिश्तों में बँधे इन्सानों का समूह मात्र नहीं है. सुख-दुःख, खान-पान, अच्छाई-बुराई और मानवीय संवेदनाओं के बगैर इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. इंसानों को छोड़कर अन्य जीव-जंतु इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. पूर्व में इंसान 'जीने के लिए भोजन' और 'रहने के लिए एक छत' में ही संतुष्ट रहता था. धीरे-धीरे उसे रिश्तों और संगठनात्मक फायदों का आभास हुआ, पहले खून के रिश्तों का फिर सामाजिक रिश्तों का. हमारे समाज में रिश्ते भी कई तरह के होते हैं. कुछ स्वार्थ के लिए तो कुछ श्रद्धा के लिए. कुछ लाभ के लिए बनाए जाते हैं तो कुछ बदले की भावना से. इसी तरह कुछ रिश्ते विरासत में मिलते हैं, कुछ संतति के लिए और कुछ स्वमेव ही बन जाते हैं. रिश्तों में मित्रता और वैमनस्यता दोनों ही होती हैं. यदि मित्रता का रिश्ता है तो वह निश्छल और परस्पर समर्पण भाव लिए होना चाहिए. छद्म मित्रता तो आज की जरूरत और शग़ल होता जा रहा है. मित्रता को संजीदगी से निभाना आज सबसे अधिक घाटे का रिश्ता बन गया है. आज के परिवेश में मित्रता के मायने बदल गए हैं. हम अपने पूर्वजों और ग्रंथों द्वारा बतलाई कृष्ण-सुदामा, कर्ण-दुर्योधन, राम-सुग्रीव आदि की मित्रता से ही सहमत नज़र नहीं आते. बात केवल लाभ या हानि की नहीं है. बात है मैत्रीवत रिश्तों के निर्वहन की. हम जानते हैं कि समय, काल और परिवेश के अनुरूप मानवीय एवं भौतिक मूल्यों में परिवर्तन होता है. अथाह भंडारों के बाद भी दो घूँट पानी और कुछ पल प्राणवायु के अभाव में लोगों के मरने के किस्से सबने सुने होंगे. स्थान और आवश्यकता के अनुसार मूल्य बदलते हैं लेकिन मित्रता मूल्यों का सौदा नहीं है. यह दुनिया की पाक नियामत है जिसे भगवान ने भी पावन भाव से निभाया है. साथ में यह भी कहा जाता है कि मित्रता हो जाती है, की नहीं जाती. सच्ची मित्रता कालजयी होती है और छद्म मित्रता छणभंगुर होती है. छणभंगुरता पानी के बुलबुले, बरसाती मेढक अथवा मौसमी नाले जैसी होती है. बात वही है कि 'स्वार्थ पूर्ण, दोस्ती ख़त्म'. क्या हम में से अधिकांश यही नहीं कर रहे हैं. हम अपनी मित्रता पर कितने संजीदा हैं. आज हम एक श्वांस में बचपन के कितने मित्रों के नाम गिना सकते हैं ? आप हफ्ते, महीने या वर्ष में कितने दोस्तों को बिना किसी काम के याद करते हो ? अरे भाई, सोचो ...!   आज अधिकतर सभी ऐसा ही कुछ कर रहे हैं. वास्तव में यही बदलाव है, पर सही बदलाव समाज को सही दिशा देता है और गलत बदलाव समाज को पतन की ढकेलता है.

बचपन में एक ही स्कूल में पढने वाले, मोहल्ले में एक साथ गिल्ली-डंडा खेलने वाले, किसी को चिढाकर अगले पल मनाने वाले हम भी तो रहे है. आज की व्यस्तताओं, महत्वाकाक्षाओं और रिश्तों के अवमूल्यन ने हमें पास रहते हुए भी दूर कर दिया है. हम इसे विकास की विडम्बना कहें या वरदान. हर कुछ गोलमाल सा लगने लगा है. आज बचपन के जिस लंगोटिया यार को अपने देश की मिट्टी से ज्यादा विदेशी संस्कृति से लगाव हो गया है. रामायण-गीता से ज्यादा नीति और शांति विदेशी पुस्तकों में नज़र आती है. जो अपने देश में रहते हुए भी विदेशी जीवन शैली अपनाना अपनी शान समझता है. भारतीय परम्पराओं एवं भारतीयता पर से जिसका विश्वास उठ गया है. हितैषी और स्वार्थी में फर्क करना भूल गया है. ऐसे मित्र को उसकी इस छद्म दुनिया से बाहर निकालने का काम सच्चे मित्रों के अलावा और कोई कर ही नहीं सकता... मुंबई की "एकजुट" संस्था का नाटक "यार बना बडी" इसी विचारधारा को ध्यान में रख कर तैयार किया गया है. संस्कारधानी जबलपुर के खचाखच भरे तरंग प्रेक्षागृह में विवेचना द्वारा आयोजित पाँच दिवसीय १७ वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के अंतिम दिन 'एकजुट' मुंबई की निर्देशिका नादिरा बब्बर ने अपनी टीम के सज्ज़ाद खान, यशपाल शर्मा और राजेश बलवानी के साथ एक नई परिकल्पना के साथ "यार बना बडी" नाटक की समृद्ध प्रस्तुति दी. 
मिथिलेश खुराना (यशपाल शर्मा), कार्तिक कोठारी (राजेश बलवानी) एवं जयदीप वानखेड़े (सज्ज़ाद खान) बचपन के सच्चे और परस्पर समर्पित मित्र हैं. वक्त के साथ और रुचियों के अनुरूप तीनों अपनी अपनी अलग ज़िंदगी जीते हैं. जयदीप पाश्चात्य संस्कृति में इतना डूब जाता है कि वह भारतीयता और अपनों को भी हेयदृष्टि से देखने लगता है. दोस्तों की सोच और बातचीत में भी उसे ओछापन नज़र आता है. यह सब देखकर मिथिलेश चुप नहीं बैठ पाता. वह जयदीप के बेमानी परिवेश, अतिशय फिजूलखर्ची एवं सुगना से मंगनी तोड़ने पर बहुत परेशान होता है. वह तीसरे मित्र कार्तिक के साथ मिलकर अपने मित्र को हक़ीकत की दुनिया में वापस लाने का बीड़ा उठाता है. मित्र की खातिर बेइज्जती, स्वाभिमान यहाँ तक की अपनी पत्नी तक को कही गई अनाप-शनाप बातों पर भी संयम बरतता है. उसका मानना है कि हर रिश्तों से बड़ा मित्रता का रिश्ता होता है. यह अपनी मरजी का रिश्ता है जिसे कभी भी बनाया और कभी भी तोड़ा जा सकता है. एक सच्चा दोस्त भला अपने मित्र की फ़िजूलखर्ची और उसको बिगड़ते भला कैसे देख सकता है. बस ऐसी ही मीठी-नमकीन बातें हैं जो दर्शकों के सीधे दिल में उतर जाती हैं. दोस्तों के बीच गिलेशिकवे, रूठना-मनाना, गाली-गलोच, आरोप-प्रत्यारोप, जयदीप को तरह-तरह से समझाना, उसके अनावश्यक महंगे शौक को औचित्यहीन निरूपित करना जैसे संवादों के दृश्य नाटक के लिए तैयार भव्य सेट के अन्दर बखूबी प्रस्तुत किये गए. इन दोस्तों की तीन चार बैठकों में ही आखिर जयदीप की आँखें खुलती हैं. वह अपने सच्चे मित्रों की मित्रता पहचानता है. अपनी पूर्व मंगेतर सुगना से माफी माँगता है. यहाँ तक कि जापान के मशहूर आर्टिस्ट से ली गई एक करोड़ रुपये की बहुमूल्य कलाकृति को ही मित्रता के आड़े आने की बात कह कर डंडे से तोड़ देना चाहता है. ये आँसुओं से धुले वही पल होते हैं जब तीनों मित्रों की निश्छल , पवित्र और निःस्वार्थ मित्रता नए आयाम तय करती है.

बोलचाल की सीधी-सपाट बयानबाजी, चरित्रों के अनुरूप भाषाशैली, सटीक उत्तर-प्रत्युत्तर, खुशी-ग़म, मिलन-विरह, घमंड-विनम्रता, परस्पर समर्पण भावना की सहज प्रस्तुति एवं भूत-अभूत से हटकर वर्तमान की जानी-मानी बातों का ताना-बाना अर्थात "यार बना बडी" नाटक अपनी पटकथा को लेकर निश्चित रूप से हटकर साबित हुआ है. इस सफल प्रस्तुति के लिए पूरी एकजुट मुंबई बधाई की पात्र है.

समीक्षा आलेख एवं प्रस्तुति :












- विजय तिवारी "किसलय"

6 टिप्‍पणियां:

Girish Kumar Billore ने कहा…

सफ़ल समीक्षा आभार
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एक नज़र : ताज़ा-पोस्ट पर
पंकज जी को सुरीली शुभ कामनाएं : अर्चना जी के सहयोग से
पा.ना. सुब्रमणियन के मल्हार पर प्रकृति प्रेम की झलक
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हरकीरत ' हीर' ने कहा…

समाज रिश्तों में बँधे इन्सानों का समूह मात्र नहीं है. सुख-दुःख, खान-पान, अच्छाई-बुराई और मानवीय संवेदनाओं के बगैर इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.....
सही कहा विजय जी ...जहां संवेदनाएं न हों वहाँ आत्मीयता खत्म हो जाती है ....और प्रेम गठरी बाँध कहीं कोने में दुबक जाता है ....

बोलचाल की सीधी-सपाट बयानबाजी, चरित्रों के अनुरूप भाषाशैली, सटीक उत्तर-प्रत्युत्तर, खुशी-ग़म, मिलन-विरह, घमंड-विनम्रता, परस्पर समर्पण भावना की सहज प्रस्तुति एवं भूत-अभूत से हटकर वर्तमान की जानी-मानी बातों का ताना-बाना अर्थात "यार बना बडी" नाटक अपनी पटकथा को लेकर निश्चित रूप से हटकर साबित हुआ है. इस सफल प्रस्तुति के लिए पूरी एकजुट मुंबई बधाई की पात्र है.

बहुत ही अच्छी समीक्षा की आपने ....निश्चित रूप से ये एक सफल नाटक रहा होगा .....!!

sandhyagupta ने कहा…

छद्म मित्रता तो आज की जरूरत और शग़ल होता जा रहा है.आज के परिवेश में मित्रता के मायने बदल गए हैं.

आपकी बात से सहमत हूँ.नाटक की सफल प्रस्तुति की जानकारी पाकर ख़ुशी हुई.

Girish Kumar Billore ने कहा…

“नन्हें दीपों की माला से स्वर्ण रश्मियों का विस्तार -
बिना भेद के स्वर्ण रश्मियां आया बांटन ये त्यौहार !
निश्छल निर्मल पावन मन ,में भाव जगाती दीपशिखाएं ,
बिना भेद अरु राग-द्वेष के सबके मन करती उजियार !!
हैप्पी दीवाली-सुकुमार गीतकार राकेश खण्डेलवाल

BrijmohanShrivastava ने कहा…

आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
मैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ

SHAKTI PRAJAPATI ने कहा…

kya baat hai sir,apki samiksha ek research se kum nahin,asha hai aap isi tarah is blog ko aur rochak banayenge.