शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

नाटक के बहाने-2 : चहार दीवारी के बाहर भी सक्षम है नारी : विवेचना राष्ट्रीय नाट्य समारोह 2010.

रूढ़िवादी परम्पराओं, शारीरिक परिस्थितियों एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के चलते विश्व में आज भी पुरुष प्रधान समुदाय का बाहुल्य है. फर्क बस इतना है कि पहले नारी प्रथानुसार सीमित दायरे में रहकर ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया करती थी और अब शिक्षा, विकास, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के मुताबिक़ घर से बाहर निकलकर पुरुषों के समकक्ष आने को है. पारिवारिक संतुलन एवं संचालन की बागडोर आज भी अधिकतर पुरुषों के हाथों में ही है. आज समझदारी, सहकारी और सुदृढ़ पारिवारिक व्यवस्था को बनाए रखने हेतु नारी एवं पुरुष दोनों ही कटिबद्ध नज़र आते हैं. अब पुरुषों में पुराने जमाने वाला पुरुषत्व आड़े नहीं आता.
(छवि राज एक्सप्रेस  जबलपुर   से साभार)
सदियों पहले मनोरंजन के नाम पर रामलीला, नाटक, नौटंकी आदि ही साधन हुआ करते थे. मंचों पर नारी पात्रों के अभिनय को सामाजिक मान्यता प्राप्त न होने के कारण उनका अभिनय पुरुषों द्वारा ही किया जाता था. आज भी देश के अनेक भागों में रामलीला एवं नाटक-नौटंकियों में नारी की भूमिका पुरुष ही निभाया करते हैं.
समय के बदलाव के साथ-साथ ' बेड़न ' समाज की सामान्य तौर पर " बेड़नियाँ या बेड़नी " के नाम से परिचित महिलाओं ने भी अपने पारंपरिक नृत्य को उदरपूर्ति एवं धंधे के रूप में स्वीकार किया और अपनी विशेष शैली के नृत्य को शादी-ब्याह, तीज-त्योहार एवं बड़े कार्यक्रमों में प्रस्तुत करने लगीं. इन बेड़नी नृत्यों को कराना उस जमाने में शान समझा जाता था और आस-पास के इलाके के लोग इसे देखने भागे चले आते थे. इस कालखंड में इस चर्चित बेड़नी नृत्य ने प्रसिद्धि तो पाई लेकिन तब भी आम आदमी की निगाह में यह हेयदृष्टि से ही देखा गया. साक्षरता एवं शासकीय नीतियों के चलते इस समुदाय का काफी विकास हो चुका है और धीरे-धीरे इस नृत्य के मायने भी बदले हैं. उस समय रामलीला के पात्र तथा नाट्यकर्मी भी प्रायः पुरुष ही हुआ करते थे और वही नारी पात्रों का अभिनय भी करते थे. जब पुरुषों द्वारा नारी अभिनय के लिए बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाता था तब अनेक दक्ष प्रशिक्षक अपने हुनर का लोहा मनवाते थे. इनकी लगन और मेहनत पर ही रामलीला एवं नाटकों की सफलता निर्भर करती थी. इसी समय और परिवेश से सम्बंधित नाटक " रूप अरूप " दिनांक २८ अक्टूबर २०१० को संस्कारधानी जबलपुर के तरंग प्रेक्षागृह में नई दिल्ली की नाट्य संस्था "शब्दकार" द्वारा मंचित किया गया जो कि त्रिपुरारी शर्मा द्वारा निर्देशित है.

(छवि पत्रिका जबलपुर से साभार )
नाटक में एक युवा तन-मन से नारी चरित्र में स्वयं को डूबा पाता है तो दूसरी बेड़न समुदाय की युवती रंगमंच के तौर- तरीके और अभिनय सीखना चाहती है. दोनों युवा कलाकारों का अंतर्द्वन्द्व, प्रश्नोत्तर, नोंकझोंक को माध्यम बनाकर खेले गए इस नाटक के चरमोत्कर्ष पर नारी पात्र के अभिनय में पुरुष स्वयं को कमतर पाता है और स्वीकार भी करता है. नारी और पुरुष की अभिनय क्षमता दर्शकों को भी एहसास दिलाती है कि नारी का कोई विकल्प नहीं है. नाटक में दोनों पात्रों की सटीक भूमिका अभिनय एवं भावनात्मकता का अतिरेक दर्शकों को तालियाँ बजाने पर मजबूर करता है. नाटक में बेड़नी समुदाय की युवती के हाव-भाव, बोल-चाल, नृत्य शैली मंचीय न होकर अपनी विरासत और समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है. युवा उसे बार बार समझाने का प्रयास करता है कि वह मंचीय शालीनता, रीति-रिवाज और अदब के सीखे बिना अभिनय में पारंगत नहीं हो सकती. बावजूद इसके वह महत्वाकांक्षी बेड़नी उस नारी अभिनय में दक्ष युवक का पीछा नहीं छोड़ती और सीखने की कोशिश करती है. प्रशिक्षण के ही दरमियान वह युवक को नारी गुणों और नारी सुलभ अपनी अदाओं से यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि नारी नारी होती है. पुरुष न कभी नारी जैसा बन सकता है और न ही उत्कृष्ट नारी चरित्र अभिनीत कर सकता . साथ ही वह उस युवक को पुरुष होने का भी एहसास दिलाती है. यहीं पर नारी पात्र के पुरुष नायक का अपनी दक्षता से मोहभंग होता है और युवती के चेहरे पर नारी विजय का उल्लास नजर आता है. 
 समीक्षा आलेख :-








-विजय तिवारी " किसलय "

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