रविवार, 26 सितंबर 2010

निःस्वार्थ भाव से की गई परसेवा सदैव समाज हितैषी एवं आत्म संतुष्टि दायक होती है -किसलय.

यदि हम सामाजिक व्यवस्थाओं के दायरे में रहकर जीवन-यापन करें तो गैर भी इस हेतु प्रेरित होते हैं. अपरिग्रह की प्रवृत्ति मनुष्य को कहीं न कहीं लोभी और स्वार्थी बनाती है. आवश्यकता से अधिक संग्रह ही हमें वास्तविक कर्म से विलग करता है. एक सच्चे इंसान का कर्तव्य अपनी बुद्धि एवं विवेक का सदुपयोग करना होता है. 'स्व' के स्थान पर 'सर्व' की चिंता करना, समाज के काम आना और समाज में रहते हुए परस्पर भाई-चारे का परिवेश निर्मित करना हर मनुष्य का सिद्धांत होना चाहिए. हमारे नेक सिद्धांत ही हमें आदर्श पथ पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं तथा हमारे समाज में भी यही संदेश जाता है, जो दूसरों को इस दिशा पर चलने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है. इंसान का आदर्श होना कोई जन्मजात गुण नहीं होता. हम समाज में रहते हैं, सामाजिक गतिविधियों और आचार- व्यवहार को निकट से देखते हैं. यदि हम अपने चिंतन और मनन से अच्छाई-बुराई एवं हानि-लाभ के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम की सूक्ष्मता से थाह लें तो उचित एवं अनुचित के काफ़ी निकट पहुँचा जा सकता है. इन दोनों पहलुओं में हमें उचित पहलू पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है तथा अनुचित पहलू के प्रति नकारात्मक रुख़ भी अपनाना होता है.



सकारात्मक दृष्टिकोण ही हमारे आदर्श मार्ग का प्रथम चरण होता है. हमारी भावनाएँ हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारी लगन का इसमें महत्वपूर्ण योगदान रहता है. हम इन गुणों से उचित और अनुचित का फर्क सहजता से समझ सकते हैं. अपने धीरज और विवेक से अनुचित का प्रतिकार नियोजित ढंग से कर सकते हैं. समाज का उत्थान हम सबकी अच्छाई पर निभर करता है. बुराई समाज को पतन की ओर ले जाती है. हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा. यदि ऐसा है तो ये शुरुआत हम स्वयं से ही क्यों न करें. कल हमारा परिवार, हमारा मोहल्ला और हमारा नगर इस हेतु प्रेरित होगा. दीप से दीप जलेंगे तो तिमिर हटेगा ही. जब हम एक से दो, दो से चार होंगे तब जग में सुधार की लहर बहना सुनिश्चित है और उसकी परिणति भी सुखद होगी. निश्चित रूप से हमारे मन में आएगा कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता  कि  सम्पूर्ण जग सुधर जाएगा, परन्तु लोग ऐसा सोचते ही क्यों हैं. ऐसे निःस्वार्थ कार्यों में आगाज के पहले ही अंजाम की सोचना आपका पीछे हटना ही माना जाएगा. एक बार हम इतिहास के  पन्ने पलट कर तो देखें. हमारे पूर्वजों ने सब कुछ अपनी ख़ुशी के लिए नहीं किया है. ऋषि-मुनियों ने कठिन त्याग-तपस्या, देशभक्तों ने अपने प्राणोत्सर्ग, अकल्पनीय परसेवा मानवहितार्थ ही की है. पेड़ लगाने वालों ने यदि सोचा होता कि जब उन्हें इसके फल ही चखने को नहीं मिलेंगे तो क्या आज हम उनके द्वारा लगाये गए पेड़ों के फलों का स्वाद चख पाते? इसी तरह यदि हम अपनी अगली पीढ़ी के लिए कुछ नहीं करेंगे तो वह आपको कैसे याद करेगी ? बस यही बात है आपको याद किये जाने की, आपको अमरता प्रदान करने की. आपके कर्तव्य और आपका सामाजिक योगदान ही आपकी धरोहर है जो पीढ़ी-दर-पीढी हस्तांतरित होती है जिसका संवाहक हमारा यही समाज होता है. हमारी गीता में लिखा है " कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन " यहाँ पर इसका आशय यह लगाना चाहिए कि हम कर्म करेंगे तो उसका फल हमें अवश्य प्राप्त होगा. एक एक बिन्दु से रेखा बनती है. रेखाओं से अक्षर, अक्षरों से शब्द और यही सार्थक शब्दसमूह अभिव्यक्ति के माध्यम बनते हैं. शब्दशक्ति से कौन अपरिचित है. विश्व की हर क्रान्ति के पीछे शब्दशक्ति का ही हाथ रहा है. बड़ी से बड़ी क्रान्ति भी विफल हो गयी होती यदि "अभिव्यक्ति" जन-जन तक न पहुँचती. तात्पर्य यही है कि एक बिन्दु या एक इंसान भी आदर्श मार्ग पर चलेगा तो वह रेखा जैसा बिन्दुसमूह या यूँ कहें कि उस जैसे लोगों का एक कारवाँ तैयार होता जाएगा जो समाज को नई चेतना जागृत करने के साथ-साथ विकास के पथ पर भी अग्रसर करेगा. ऐसा नहीं है कि इंसान संपन्न एवं उच्च पदस्थ होकर आम आदमी के दुःख-दर्द का एहसास नहीं कर सकता. मेरी मान्यता तो यही है कि परिस्थितिजन्य विचार और परिवर्तित दृष्टिकोण वह सब करने की इजाजत नहीं देते जो उसके अंतस में विद्यमान एक " साधारण आदमी " करना चाहता है. आखिर ऐसा क्यों करता है यह तथाकथित विशिष्ट वर्ग? इस विशिष्ट वर्ग के आचरण ही समाज में दूरियाँ पैदा करते हैं. हम सदियों से देखते आ रहे हैं कि इस वर्ग की आयु बहुत ही कम होती है क्योंकि झूठ और अनैतिकता की बुनियाद पर खडा इंसान कभी स्थायित्व प्राप्त कर ही नहीं सकता.



बात तो तब है जब इंसान इंसान के काम आये. ऊँच-नीच, छोटे-बड़े, और अमीर-गरीब के बीच की खाई पाटी जाए. जीव अमर नहीं होता, सम्पन्नता और विपन्नता जब यहीं पर धरी रह जाना है तो फिर ये बात लोगों की समझ के परे क्यों है. कम से कम हम अपने व्यवहार और वाणी से मधुरता तो घोल ही सकते हैं. मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे पेट के साथ दो हाथ और दो पाँव मिलते ही इसलिए हैं कि वह इनसे अपना और अपने परिवार का उदर-पोषण कर सके. हम ईर्ष्यालुओं और विघ्नसंतोषियों को छोड़ दें तो शायद ही कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो सम्पन्नों से कोई विशेष उम्मीद करते हों ? आम इंसान को अपनी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा रहता है. वह जीवन में आगे बढना तो चाहता है परन्तु अच्छी नियत से. बुराई तो घोली जाती है, क्योंकि ईश्वर तो हमें इस स्वर्णिम धरा पर निश्छल ही भेजता है. आदमी छोटा हो या बड़ा, यदि उसमें निश्चलता भरी है तो वह सच्चे अर्थों में इंसान है.  इंसान सदैव दूसरों के लिए जीते हैं.  अपने लिए तो कोई भी जी सकता है. हमारे व्यवहार और हमारी भाषा ही हमें समाज में विशिष्ट स्थान दिलाती है. हमारे सद्कर्म हमें स्वयं यश-कीर्ति दिलाते हैं . निःस्वार्थ भाव से की गई परसेवा का प्रतिफल सदैव समाजहितैषी एवं आत्मसंतुष्टिदायक होता है. तुलसी-कबीर, राणा-शिवा जी, लक्ष्मीबाई, गांधी, विनोबा, मदर टेरेसा ऐसे ही नाम हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर रहेंगे. हम इतिहास उठाकर देख सकते हैं कि अधिकांश स्मरणीय व्यक्तित्व सम्पन्नता या महलों में पैदा नहीं हुए और पैदा हुए भी हैं तो वय की परिपक्वता के साथ-साथ वे वैभव-प्रासाद से निर्लिप्त होते गए, क्योंकि सच्चरित्र, सद्ज्ञान और शिक्षा-दीक्षा आपसी नजदीकियाँ बढाती है. वैभव-प्रासाद साधारणतः आम आदमी को दूर रखता आया है. हमारा चरित्र और हमारा व्यवहार दिल दुखाने वाला कभी नहीं होना चाहिए. अपने बोल-चाल और सहयोगी भावना से दूसरों को दी गई छोटी से छोटी खुशी भी आपको चौगुनी आत्मसंतुष्टि प्रदान करती है. आप एक बार इस पथ पर कदम बढायें तो सही. मुझे विश्वास है कि आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित होने लगेंगे जिनपर आपको स्वयं विश्वास नहीं होगा. यह एक सच्चाई है कि नजदीकियों से गुणों का आदान-प्रदान होता है. हम अच्छाई के निकट रहेंगे तो अच्छे बनेंगे. बुराई के निकट रहेंगे तो बुरे बनेंगे. जब हम अच्छे-बुरे को याद करने के लिए अपनी स्मृति पर जोर डालते हैं तो बुरे लोगों की बजाय जेहन में अच्छे लोग ज्यादा आते हैं. इसका सीधा आशय है कि बुरे लोगों को कोई भी याद नहीं रखना चाहता. बुरे लोग केवल उदाहरण देने हेतु ही याद रखे जाते हैं.



हमारा ध्येय स्पष्ट है कि सच्चाई, परोपकार और सौहार्द की दिशा में बढाए गए कदम हमें विकास के शिखर तक अवश्य ले जायेंगे . यही मानव जीवन की सार्थकता और उपादेयता भी है.













-विजय तिवारी " किसलय " जबलपुर.


3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख!
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आपकी बात से सहमत हूँ!

shikha varshney ने कहा…

बहुत अच्छे सन्देश देता आलेख .

Udan Tashtari ने कहा…

सच्चाई, परोपकार और सौहार्द की दिशा में बढाए गए कदम हमें विकास के शिखर तक अवश्य ले जायेंगे . यही मानव जीवन की सार्थकता और उपादेयता भी है

-बिल्कुल जी..सार्थक एवं आवश्यक कदम..हम आपके साथ हैं.

अच्छा आलेख.