शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

रेशम का धागा

कि रणें सुन्दर लगें भोर की,
शो  भा देती रात चाँदनी.
हे हृदय में भैया ऐसे,
द्वि ज-रसना ज्यों वेद-रागिनी..

वे णु के स्वर मिश्री घोलें,
दी पक जैसे तम को हरता.
रे शम का धागा वैसे ही,
खा लीपन भैया का भरता..

पा ते हम स्नेह भाई से,
न् यौछावर   उन पर तन-मन-धन.
डे रा हो खुशियों का आँगन,
ही भावना है अंतर्मन ... 









- विजय तिवारी " किसलय "

2 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

वाह गज़ब की कविता बुनी है नामो के साथ ..

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर .. क्‍या कहने !!