सुख की चाह समग्र जीव जगत में पाई जाती है। इंसान में सुख केवल चाह न रहकर आवश्यकता बनता जा रहा है । सुख की खातिर आदमी आज कुछ भी करने को तैयार है । वह भविष्य को सुखमय बनाने के लिये नैतिक-अनैतिक हर कार्य करने से नहीं हिचकता । आज ईमानदारी, सत्यता और न्याय की बातें किताबी लगने लगी हैं। नीति, आदर्श और परोपकार की कथायें और संस्मरण अब लोग सुनने से भी कतराने लगे हैं। आज के बदलते परिवेश और सुख-स्वार्थ की अन्धी दौड़ में हम अपनी संस्कृति और धर्म को भूलते जा रहे हैं।
हमारा वेदोक्त वाक्य " संतोषम् परम् सुखम् " अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है । संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है । आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े । आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है । आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है । पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।
एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छा शक्ति की आती है। संतोष और इच्छा शक्ति का संबंध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छा शक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छा शक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि , यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृति छोड़कर जाता है।
आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैँ कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाले इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि "अपनत्व" से बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह मेँ हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी, और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।
हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छा शक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें , उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्म शान्ति को ढूँढें तो हमें "संतोष" ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छा शक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छा शक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।
हमारा वेदोक्त वाक्य " संतोषम् परम् सुखम् " अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है । संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है । आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े । आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है । आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है । पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।
एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छा शक्ति की आती है। संतोष और इच्छा शक्ति का संबंध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छा शक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छा शक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि , यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृति छोड़कर जाता है।
आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैँ कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाले इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि "अपनत्व" से बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह मेँ हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी, और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।
हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छा शक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें , उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्म शान्ति को ढूँढें तो हमें "संतोष" ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छा शक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छा शक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।
6 टिप्पणियां:
इसी इच्छा शक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं
nice aaj mujhe koi tanav tha is post se sambal milaa
pranaam
भौतिक सुख और संतोष के बीच की महीन सी रेखा को पहचानने की जरुरत है.
बहुत बेहतरीन आलेख..आज ऐसे आलेखों की जरुरत महसूस होती है जो कुछ दिशा दे सकें. वरना तो भटकाव और तनाव हर तरफ है.
आपका साधुवाद!!
जैसे प्रेम और मोह की बीच...............वैसे ही आवश्यकता और इच्छा के बीच का फर्क करना बहुत आवश्यक है.............आज के दौर में इन्सान अपनी इच्छाओं का गुलाम हो कर रह गया है.........संतोष तो सब से बहुत दूर हो गया है............
संतोष ही सफलता की सबसे बड़ी कुंजी है . बहुत बढ़िया लिखा है .
सहमती में उठा हाथ
समृधि बेशक बढी, पर न्यून हुआ संतोष .
अपने भीतर झांक ले, किसको है ये होश .
सुधीर पाण्डेय
ठीक कहा आपने। संस्कृत की उक्ति याद आयी-
मनः एव मनुष्याणां कारणम् बन्ध मोक्षयोः। मन यानि इच्छा शक्ति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
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