शुक्रवार, 16 जनवरी 2009
मध्य प्रदेश गौंडवाना की वीरांगना दुर्गावती
मध्य प्रदेश गौंडवाना ( जबलपुर, मंडला, नरसिंहपुर, दमोह) की महारानी जिसने देशभक्ति के लिए अपने प्राणोत्सर्ग किए , उनकी वीरता के किस्से आज भी लोग दोहराते मिल जायेंगे.
गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ा-मंडला सहित ५२ गढ़ों की शासक वीरांगना रानी दुर्गावती कालिंजर के चंदेल राजा कीर्तिसिंह की इकलौती संतान थी। महोबा के राठ गाँव में सन् १५२४ की नवरात्रि दुर्गा अष्टमी के दिन जन्म होने के कारण इनका नाम दुर्गावती से अच्छा और क्या हो सकता था। रूपवती, चंचल, निर्भय वीरांगना दुर्गा बचपन से ही अपने पिता जी के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। ये बाद में तीरंदाजी और तलवार चलाने में निपुण हो गईं। गोंडवाना शासक संग्राम सिंह के पुत्र दलपत शाह की सुन्दरता, वीरता और साहस की चर्चा धीरे धीरे दुर्गावती तक पहुँची परन्तु जाति भेद आड़े आ गया . फ़िर भी दुर्गावती और दलपत शाह दोनों के परस्पर आकर्षण ने अंततः उन्हें परिणय सूत्र में बाँध ही दिया . विवाहोपरांत दलपतशाह को जब अपनी पैतृक राजधानी गढ़ा रुचिकर नहीं लगी तो उन्होंने सिंगौरगढ़ को राजधानी बनाया और वहाँ प्रासाद, जलाशय आदि विकसित कराये. रानीदुर्गावती से विवाह होने के ४ वर्ष उपरांत ही दलपतशाह की मृत्यु हो गई और उनके ३ वर्षीय पुत्र वीरनारायण को उत्तराधिकारी घोषित किया गया. रानी ने साहस और पराक्रम के साथ १५४९ से १५६५ अर्थात १६ वर्षों तक गोंडवाना साम्राज्य का कुशल संचालन किया. प्रजा हितार्थ कार्यों के लिए रानी की सदैव प्रशंसा की जाती रही. उन्होंने अपने शासन काल में जबलपुर में दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल, मंत्री के नाम पर अधारताल आदि जलाशय बनवाये. गोंडवाना के उत्तर में गंगा के तट पर कड़ा मानिकपुर सूबा था. वहाँ का सूबेदार आसफखां मुग़ल शासक अकबर का रिश्तेदार था. वहीं लालची और लुटेरे के रूप में कुख्यात भी था. अकबर के कहने पर उसने रानी दुर्गावती के गढ़ पर हमला बोला परन्तु हार कर वह वापस चला गया, लेकिन उसने दुबारा पूरी तैयारी से हमला किया जिससे रानी की सेना के असंख्य सैनिक शहीद हो गए. उनके पास मात्र ३०० सैनिक बचे. जबलपुर के निकट नर्रई नाला के पास भीषण युद्ध के दौरान जब झाड़ी के पीछे से एक सनसनाता तीर रानी की दाँयी कनपटी पर लगा तो रानी विचलित हो गयीं. तभी दूसरा तीर उनकी गर्दन पर आ लगा तो रानी ने अर्धचेतना अवस्था में मंत्री अधारसिंह से अपने ही भाले के द्बारा उन्हें समाप्त करने का आग्रह किया. इस असंभव कार्य के लिए आधार सिंह द्बारा असमर्थता जताने पर उन्होंने स्वयं अपनी तलवार से अपना सिर विच्छिन्न कर वीरगति पाई. वे किसी भी कीमत पर जिन्दा रहते हुए दुश्मन के आगे समर्पण नहीं करना चाहती थीं और मरते दम तक शेरनी की तरह मैदान में डटी रहीं. उनके शासन काल में प्रजा सुखी और संपन्न थी. राज्य का कोष समृद्ध था जिसे आसफखां लेकर वापस लौट गया. आज भी राज्य की सम्पन्नता के बारे में चर्चाएँ होती हैं.
गढ़ा-मंडला में आज भी एक दोहा प्रचलित है -
मदन महल की छाँव में, दो टोंगों के बीच . जमा गड़ी नौं लाख की, दो सोने की ईंट ..
- डॉ विजय तिवारी "किसलय "
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7 टिप्पणियां:
जबलपुर में शिक्षा ली है इसलिए सहज मोह हो जाता है .बहरहाल आपके दोहे सार्थक है और खोब्सोरत भी .देश को केकर अआकी चिंता स्वाभाविक है .मेरे ब्लॉग पर एक देश भक्ति गीत है ,कभी गौर फरमाएगा .
विजय जी
सबसे पहले मेरे ब्लॉग तक आने के लिए आभार.
आपको दोहे पसंद आए , मेरा सौभाग्य है,
मैंने आपकी देश भक्ति वाली पोएम पढ़ी बहुत ही जोश से भरी है
- विजय
जानकारीपूर्ण लेख के लिए साधुवाद.
भारत की नारियों ने देश की अस्मिता और स्वतंत्रता के लिए हमेशा ही योगदान दिया है । आपने मध्यप्रदेश की विलुप्त ऎतिहासिक धरोहर की उम्दा जानकारी देकर सामाजिक चेतना का परिचय दिया है । जबलपुर संस्कार नगरी होने के साथ ही आज़ादी की लडाई के दौरान भी सक्रिय भूमिका में रहा है । आगे भी इस प्रचुर संपदा के दूर से ही सही हमें दर्शन कराते रहें ।
kislay ji kavita ko pasand karne ke liye dhanyvad,
I am myself from Rewa,
main to sagar me boomd ke saman hoon margdarshan apekshit hai.
bharat ki mahan virangna ko sat sat naman ,swad nahi upma ke liye keval natmastak hokar hi saman diya jasakta he ..sath sath papi mugal ko jalad kahna sarthak lag raha he.
jai rani durgawati jai ho aapko
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