गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

दोहा श्रृंखला [ दोहा क्र. 12 ]

गावों की संध्या सहज,
चंचल होती भोर ।
आपस में रिश्ते घने,
नेह झरे चहुँ ओर ॥
-किसलय

4 टिप्‍पणियां:

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा…

आपके द्वारा रचित सभी दोहे पढ़े
मात्राओं के मानक पर खरे एवं अर्थ को स्पष्टता प्रदान करते सभी दोहे सुंदर हैं.
मेरी शुभकामनायें........

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

ज्योत्स्ना जी
अभिवंदन
आप मेरे ब्लॉग पर आईं,
धन्यवाद.
दोहों को सराहा , आभार.
आपका
विजय

बेनामी ने कहा…

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बेनामी ने कहा…

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