"भागवत भूमि यात्रा"
समीक्षक- विजय तिवारी "किसलय"
स्वर्गीय श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" जी द्वारा संयोजित एवं
श्री कृष्णदत्त पालीवाल द्वारा संपादित "भागवत भूमि यात्रा" नामक पुस्तक में
मात्र यात्रा वृत्तान्त ही नहीं यात्रियों के बहुआयामी विचार भी समाहित हैं.
सम्पादक सहित एक दर्जन साहित्यकारों के यात्रा वृत्तांतों का संकलन स्वमेव
अनूठा प्रयास है. दोहरे कालम के सवा सौ से भी अधिक पृष्ठों का कलेवर पाठकों
के लिए पर्याप्त बौद्धिक सामग्री कही जा सकती है. यात्रा ३१ जनवरी ८५ से
२२ फरवरी ८५ एवं पुनः २० अगस्त ८५ से २२ अगस्त ८५ "के दौरान संपन्न
हुई.
"भागवत भूमि यात्रा की ग्रन्थ योजना में अज्ञेय जी के विचार थे कि ब्रज मंडल,
ऊखा मंडल एवं कुरु मंडल की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं लोक
जीवन के रूप में मर्यादा रेखा हो. कृष्ण से सम्बंधित कथाएँ, लीलाएँ, चरित्र,
गोप-गोपियाँ, काव्य, रास और मूर्तिकला को लीला पुरुष के अंतर्गत रखा जाए.
इतिहास पुरुष में मथुरा, हस्तिनापुर, द्वारका, देहोत्सर्ग एवं तत्कालीन पात्रों के
चरित्र वर्णन को स्थान दिया जाये. भागवत भूमि के मंदिर खंड में मथुरा,
वृन्दावन, गोकुल, किशनगढ़, नाथद्वारा, चित्तौड़, मेड़ता, डाकौर, द्वारका आदि
के मंदिरों, पूजन-अर्चन, उत्सवों का उल्लेख हो. लोक जीवन का विवरण,
भक्ति काव्य एवं संगीत, वाचिक परंपरा, भक्ति रसायन हो. "देश-काल : ब्रज
और द्वारका" में प्राकृतिक चित्रण से लेकर जीव जगत, वाद्ययंत्र, प्रमुख
जन-जातियाँ, उनके यात्रा पथ, घर सज्जा आदि का वर्णन हो. इस ग्रन्थ
योजना पर आधारित की गई यह वृहद् यात्रा कितनी सफल है, इसे तो पाठकों
के विवेक पर छोड़ना श्रेयस्कर होगा, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता
है कि इस ऐतिहासिक यात्रा का सकारात्मक सुफल "भागवत भूमि यात्रा"
नामक पुस्तक के रूप में आज पाठकों के समक्ष है.
अज्ञेय जी की अगुवाई में सम्पन्न हुई यह भागवत भूमि यात्रा भविष्य में
ऐसे अन्य प्रयासों को अवश्य ही बढ़ावा देगी. इस ग्रन्थ को एक यात्रियों
के समूह द्वारा एक नियत यात्रा पर सबके निजी दृष्टिकोण एवं विचारों का
संकलन कहा जा सकता है. यह बात अलग है कि इसमें अनेक पुनरावृत्तियाँ
सामने आई हैं, फिर भी मैं कहना चाहूँगा कि अज्ञेय जी ने ताना-बाना बुनकर
निश्चित रूप से एक विशिष्ट कार्य किया है. श्री कृष्णदत्त पालीवाल जी ने
अज्ञेयजी के अभिलाषानुरूप "भागवत भूमि यात्रा की विस्तृत भूमिका में
ही इसके विराट उद्देश्य को स्पष्ट कर दिया है. यात्रा और पुस्तक की
बारीकियों के अतिरिक्त भागवत भूमि से सम्बंधित सन्दर्भों ने भूमिका को भी
यात्रा वृत्तान्त का महत्वपूर्ण हिस्सा बना दिया है. पुस्तक का प्रथम यात्रा वृत्तान्त
श्री मानिक लाल चतुर्वेदी की "एक पंडाई रपट" से आगे बढ़ता है. मथुरा, वृन्दावन,
गोकुल और कृष्ण जन्म भूमि, पोतराकुंड आदि का वर्णन मिलता है. विद्या निवास
मिश्र द्वारा "ब्रज में व्रजन" शीर्षक से यात्रा वृत्तान्त लिखा गया है. इसमें मथुरा,
वृन्दावन और गोकुल के अनेक तथ्यों की जानकारी मिलती है. वर्तमान
परिस्थितियों पर भी लेखक द्वारा ध्यानाकर्षित कराया गया है. जैसे- "उद्योग के
कचरे ने जमुना की श्यामलता निगल ली है और कुत्सित हरियाली जैसी आभा
उगल दी है". पर्यावरण के क्षरण परऐसी टीस एक प्रबुद्ध नागरिक की ही हो सकती है.
रपट पढ़ते समय पाठक निश्चित रूप से भगवत, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, द्वारका
के कथाभावों में खो जाता है. प्रेम की पराकाष्ठा और प्राचीन भारतीय संस्कृति का
वर्णन पढ़कर मन भावविभोर हो जाता है. स्वार्थ, मोह और माया को छोड़कर
पाठक ऐसी भावधारा में बहता चला जाता है जहाँ दीन- दुनिया की सुध-बुध नहीं
रहती. भगवती शरण सिंह का "मोहि ब्रज बिसरत नाहिं" शीर्षकान्तर्गत वृत्तान्त
गागर में सागर जैसा है. यह यात्रा वृत्तान्त लीला भूमि के अलावा वहाँ के
जन जीवन से भी परिचित कराता है. यहाँ प्राचीन स्थलों तथा पौराणिक ग्रंथों
की जानकारी भी दी गयी है. कहीं कहीं लेखक के निजी विचार और संस्कृतनिष्ठ
शब्दावली सामान्य पाठकों को अखरती है, साफगोई का साहस भी देखने मिला,
जब लेखक कहता है कि देवताओं ने भी ऐसे कृत्य किये हैं जो मनुष्यों के लिए
भी उचित नहीं हैं. टटिया घाट, रमण रेती, नन्दगाँव, बरसाना, कृष्ण भक्त रसखान
की समाधि का वर्णन दिल को छू जाता है.
"यात्रा और द्वारका का संघराज्य" शीर्षक से लिखे गए वृत्तान्त में श्री मुकुंद लाल जी
पहले "गंज" शब्द की व्याख्या करते हैं, फिर पीक के रेड कार्पेट से स्वागत करती
पान की दूकान का. चोरवाड के समुद्री तट का वर्णन, अपने काँधे पर लटकाने वाले
थैले का विवरण. सोमनाथ मंदिर, सरस्वती के किनारे प्राची जहाँ कृष्ण जी का
अंत्येष्टि संस्कार हुआ था, भालका जहाँ कृष्ण को जरा व्याध का तीर लगा था,
इसके बाद जूनागढ़ में नरसी का चौरा जहाँ आज भी अखंड कीर्तन चल रही है.
इन सभी स्थलों की पर्याप्त जानकारी होती तो पाठकों को और भी अच्छा लगता.
पुस्तक में लगभग सभी के द्वारा अपने अनुभवों और पौराणिक उद्धरणों को सयास
शामिल किये जाने से भागवत भूमि यात्रा कहीं कहीं गौण प्रतीत होने लगती है.
यात्रा वृत्तान्त के समानांतर कृष्ण चरित्र और सन्दर्भों का विस्तृत वर्णन भटकन
उत्पन्न करता है.यह बात अलग है कि बातें ज्ञानवर्धन भी करती हैं, परन्तु
सम्बंधित लेखन और उद्देश्य प्राप्ति में संशय की स्थिति बनती है. दोहरे कालम
वाले १७ पृष्ठीय इस खंड में मात्र प्रथम एवं अंतिम पृष्ठ पर ही यात्रा का सांकेतिक
वर्णन है, शेष सामग्री यात्रा से लगभग विषयेत्तर परोसी गयी है. मूल द्वारका एवं
वेट द्वारका को भी पूर्णतः पुरातत्त्वज्ञ की सोच पर छोड़ना लेखकीय दायित्व से
बचने जैसा लगता है.
"भागवत भूमि यात्रा:कुछ झलकियाँ" नामक खंड रमेश चन्द्र शाह की कलम
से लिखा गया है.पोरबंदर की ओर से बढ़ते हुए द्वारकाधीश को ओझल होते देखना.
हरसिद्धि जाना. आगे मूल द्वारका, रणछोड़राय मंदिर के दर्शन करते हुए स्कन्द
पुराण की सुदामापुरी अर्थात पोरबंदर पहुँचना. यहीं काव्य-प्रकाश के रचयिता
और पोरबंदर के राजा सुरतान जी का अनोखा बगीचा देखना जहाँ एक गधेगाड़
का खम्भा गड़ा है. इसके नीचे लिखे शिलालेख पर सन्देश अंकित है- "जो भी
हमारे धर्म स्थानों को नुकसान पहुँचायेगा, उसके माता को गधा घर्षित करेगा".
यहाँ पर मैं रमेश चन्द्र शाह जी के विचार से सहमत नहीं हूँ जिसे शाहजी ने
आत्मरक्षा में अक्षम और पतोंमुखी मानसिकता बताया है. इस तरह के सन्देश
अन्यत्र भी देखने मिल जायेंगे. इनका उद्देश्य असामाजिक तत्वों को मात्र
भावनात्मक रूप से प्रताड़ित कर क्षति पहुँचाने से रोकना होता है कलचुरियों
की राजधानी "त्रिपुरी" वर्तमान तेवर, जबलपुर, मध्यप्रदेश में भी आप लगभग
ऐसा ही सन्देश पढ़ सकते हैं जिसका आशय शिल्प को मात्र नुकसान से
बचाना है. आगे कीर्ति मंदिर की छत पर गांधी जी की उम्र के द्योतक ७९ दीपक
बने हैं. यहीं पर बापू का जन्म स्थान है. माधवपुर के विक्रमराय और माधवराय
के मंदिर, गिरनार में योगियों के आदि पुरुष भगवान् दत्तात्रेय का स्थान है.
अशोक के शिलालेख, सोमनाथ का मूर्तिशिल्प, दीव का गिरजाघर एवं यहीं
के दुर्ग आदि सभी की महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है. शाह जी के बहुआयामी
वृत्तान्त में सुरम्य स्थलों, देवगृहों,समुद्री वातावरण, संगीत-साहित्य एवं
आयोजित विचार गोष्ठियों आदि का जिक्र ज्ञानवर्धक एवं रोचक बन पड़ा है.
इन्होंने स्वयं अंत में लिखा है कि "सचमुच और अक्षरशः वृत्तान्त ही कहना
होगा इसे”. युद्ध में मारे गए सगे सम्बन्धियों का पिंडदान किये जाने के कारण
पिण्डारक स्थान की बात हो अथवा द्वारकाधीश के मंदिर के शिखर पर
लहराती बावन गजा पताका का उल्लेख हो, ये सभी बातें पाठकों को प्रभावित
किये बिना नहीं रहेंगी.
"माटी के देवता, आकाश की गंध" खंड में इला डालमिया जी की भाषा शैली
अनूठी लगी. इन्होंने यात्रा वर्णन में ऐतिहासिक प्रमाणों का सूक्ष्मता से
अध्ययन करते हुए धार्मिक पुट भी डाला है और अपनी ओर से तर्क
भी प्रस्तुत किये हैं. सोमनाथ के मंदिर में बैठकर मुकुंद लाठ द्वारा की गयी
आरती को अविस्मरणीय बताया. देहोत्सर्ग स्थान, हिरण्या नदी और सागर
के संगमस्थल की जानकारी देते हुए इला जी की लेखनी आध्यात्मिक भी हो
जाती है. वे लिखती हैं कि " एक हैं अवतारी राम जिनके लिए मर्यादा बड़ी
चीज है, दूसरे हैं सोलह कलाओं से परिपूर्ण कृष्ण जिनकी कोई सीमा नहीं है.
ऐसी कोई मर्यादा नहीं जिसका वे उल्लंघन नहीं कर सकते. इला जी ने
अहमदाबाद के निकट गिरी के जंगलों में पलाश के फूलों के दहकते हुए वन,
निकट ही तुलसी- श्याम स्थान जो वृंदा और कृष्ण के प्रसंग से जुड़ा है या
फिर सात मूल द्वाराकाओं की बात हो, सब के बारे में अधिक से अधिक
जानकारी देने में सफलता पाई है. सच में "कृष्ण तथ्य कम और पुराकथा
ज्यादा लगते हैं. कृष्ण स्वयं अपनी कहानी हैं.
"सागर, क्या तुम कृष्ण हो" शीर्षक से वृत्तान्त लिखते हुए नरेश मेहता
कहते हैं कि यात्रा का प्रथम चरण द्वारका, पोरबंदर आदि की यात्रा करना
था. भागवत भूमि यात्रा का द्वितीय चरण चोरवाड़ से शुरू होता है जहाँ
नरेश मेहता जी पहुँचते हैं. यात्रा के दौरान दृष्टिगत प्राकृतिक सौन्दर्य
के चित्रण से भ्रम होता है जैसे मेहता जी द्वारा भागवत भूमि और कृष्ण
से संदर्भित तथ्यों को जानने की बजाय प्रकृति की सुन्दरता पर आलेख
लिखने हेतु यात्रा की गई हो. नंदलला के नन्दगाँव एवं श्रीरूपा राधा के
बरसाना के बहाने मेहता जी ने इनसे सम्बंधित कुछ जानकारी अवश्य
दी है. वे लिखते हैं कि कला का उल्लंघन किसी व्यक्ति के द्वारा नहीं हो
सकता पर व्यक्ति के माध्यम से यह संभव है, इसीलिये राम से अधिक
रामत्व और कृष्ण से अधिक कृष्णत्व को सर्वोपरि माना गया है.
संकलित यात्रा संस्मरणों में अधिकांश स्थलों के वर्णन की पुनरावृत्ति
से उत्पन्न नीरसता का भाव मेहता जी के वृत्तांत में भी परिलक्षित
हुआ. अंत में मेहता जी का यह वाक्य याद रहता है- "वेरावल
गुजरात के सागर तट की मत्स्य गंध से अधिक तीव्र कृष्ण गंध मेरे
व्यक्तित्व में निबद्ध हो गयी है. इसलिए मैं प्रायः सागर से पूछता
हूँ कि सागर, क्या तुम कृष्ण हो?
"भागवत भूमि - उत्तर यात्रा" वृत्तांत में विष्णुकान्त शास्त्री के
अनुसार प्रबुद्धयात्री का मन किसी यात्रा के दौरान भूगोल से जुड़े
इतिहास, इतिहास से जुड़े समाज, समाज से जुड़े जीवन, जीवन
से जुड़े विचार, दर्शन, साधना, संस्कृति, साहित्य सभी का
साक्षात्कार कराना चाहता है. आपने विषयेत्तर सन्दर्भों, क्षेपकों
अथवा शब्दजाल से दूर रहते हुए यात्रापथ के वृत्तांत पर विशेष
ध्यान दिया है. "द्वारका और वेट द्वारका "वृत्तान्त श्री रघुवीर
चौधरी के संस्मरण हैं. यात्रा पथ पर केन्द्रित भाव इस वृत्तान्त
को उद्देश्यपूर्ण बनाते हैं. समुद्र तट, दर्शनीय स्थलों, साहित्यिक
गोष्ठियों आदि सभी का आवश्यकतानुरूप वर्णन अच्छा लगा.
अज्ञेय जी के "कौन गली गए स्याम" वृत्तान्त में इनका चिंतन
बार बार एक ही जगह केन्द्रित हुआ है और वह है "कौन गली
गए पर स्याम". जब सबै भूमि गोपाल की है तो हम मान सकते
हैं कि वे यहाँ-वहाँ या कहीं से भी निकले होंगे. उनकी बातों से
यह भी आभास होता है कि यात्रा और अच्छी तथा पूर्णता लिए
हो सकती थी अगर यात्री और समय दोनों की पर्याप्तता होती.
अभय नगरी, किशनगढ़, नाथद्वारा, भीमनमाल , जालौर,मेड़ता
का चौभुजा देव मंदिर आदि सभी यात्रा के पड़ावों का उल्लेख
मात्र है. मीरा अथवा वल्लभाचार्य जी की बात हो, गोचारकों
अथवा कृषकों की बात हो या फिर इन सबके अतिरिक्त कृष्ण
से जुड़े तथ्यों और सामाजिक सरोकारों की बात हो, इन्होंने
अपनी अभिव्यक्ति से स्पष्ट किया है कि केवल प्रामाणिकता
का अकेला महत्त्व नहीं होता, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ
रही प्रथाओं, चर्चाओं आख्यानों का भी अहम स्थान होता है
जो हमारे हृदयों में आस्था और विश्वास के प्रतीक हैं.
"भगवत भूमि : एक मनोयात्रा" नाम के वृत्तान्त में जड़ावलाल
मेहता की भावनाएँ एवं विचार सम्मिलित किये गए हैं. यात्रा के
दूसरे चरण हेतु अहमदाबाद से जुड़े मेहता जी कहते हैं कि यह
हमारी सांस्कृतिक यात्रा थी, धार्मिक तीर्थयात्रा नहीं. हम
मिनी बस में सफ़र करते थे,पद यात्रा नहीं. अतिथिगृहों या
होटलों में ठहरते थे धर्मशालाओं में नहीं. सच, समय के
बदलाव ने तीर्थ को 'टूर' में परिवर्तित कर दिया है. यात्रा
शब्द की विवेचना हो या फिर द्वारका अथवा द्वारकाओं के
बहाने लिखा वृत्तांत, भागवत भूमि यात्रा को केंद्रबिंदु से परिधि
की ओर ढकेलते लगा. यही बात इस पुस्तक के सभी यात्रियों
के वृत्तांतों में भी देखने मिली. इसी तरह वृत्तान्त अधिकतर
स्थलों के नामों तक ही सीमित रहे. वहाँ की विशेषताओं
अथवा भौगोलिक बातों को पता नहीं क्यों महत्त्व नहीं दिया
गया, जबकि ग्रन्थ योजना में इन सबका स्पष्ट उल्लेख किया
गया था. मेरी दृष्टि से यदि ब्रज-द्वारका-कृष्ण के अतिरिक्त
इन बातों का यथोचितसमावेश किया जाता तो कृष्ण
और कृष्ण भूमि का यह एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ ग्रन्थ
बन सकता था. इसीलिए शायद इसे 'टूर' कह कर
मेहता जी ने इस विषय पर कुछ न कहते हुए भी सब
कुछ कह दिया है.
भागवत भूमि यात्रा की जो योजना बनाई गई थी उसके अनुरूप
शायद सामग्री की और आवश्यकता महसूस हुई. यात्रियों
ने श्रमसाध्य साक्ष्य और जानकारी एकत्र करने के स्थान
पर अपनी कल्पना और अनुभव का सहारा लिया है.यात्रा
आलेखों में स्थलों, शहरों, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक
घटनाओं की स्पष्ट छवि मानस पटल पर उभर कर नहीं आई.
यह धुंधलापन निश्चित रूप से यात्रा की कमजोरी का द्योतक
है. पूरी पुस्तक के अध्ययन के उपरान्त कहा जा सकता है
कि भागवत भूमि के यात्रीगण यदि पुस्तक में परिलक्षित
वैचारिक तथा भाषाई पांडित्य- प्रदर्शन के स्थान पर यात्रापथ
के स्थलों का ग्रन्थ योजनानुरूप विवरण एवं यात्रा के दौरान
अर्जित जानकारी पर आधारित वृत्तांत लिखते तो निश्चित रूप
से यह एक उपयोगी सन्दर्भ ग्रन्थ से कम नहीं होता. शायद
ऐसी ही कुछ भावनाएँ अज्ञेय जी के मन में भी उथल-पुथल
मचाती रही हैं, जिस कारण उन्होंने लिखा भी है कि "वैसे
शोध और अध्ययन की आवश्यकता है,जिसका कच्चा मसविदा
मैंने बनाया था; वैसी पुस्तक आएगी तो न केवल हिंदी की
श्रीवृद्धि करेगी वरन भारतीयता की एक गत्यात्मक भावना
के विकास में भी योग देगी. बावजूद इन सबके यह पुस्तक
निश्चित रूप से हमारे हिंदी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर बन
चुकी है.
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-विजय तिवारी "किसलय"
जबलपुर (म. प्र.)
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