सागर जैसी व्यापकता और कला की सूक्ष्म दृष्टि जब सृजन हेतु क्रियाशील होती है तब अन्तस का विचार मंच कैनवास पर एक सजीव संसार को जन्म देता है। लगन परिश्रम और निर्विकार भाव से गढ़ा गया कल्पना और यथार्थ का मिश्रण अतुल्य एवं अविस्मरणीय सुखद अनुभूति देता है। प्रत्येक इंसान कला का प्रसंशक होता है, परंतु कलाकार मुश्किल से पैदा होते हैं। उनके अंदर की विलक्षण कल्पना-शक्ति, दृश्य-अदृश्य, जीव-निर्जीव, धरती-आकाश अथवा वर्षा-गरमी-ठण्ड को कैनवास पर प्रतिबिंबित ही नहीं करती, उसे प्रांजल स्वरूप भी प्रदान करती है। कलाकार ईश्वरीय उपहार हैं तो कला के प्रति समर्पण उनकी महानता है। कला और शिक्षा कभी पूर्ण नहीं होती। कलाकार का स्थिर होना अधूरेपन का द्योतक है। निरंतरता और नियमित अभ्यास उत्कर्ष के नये शिखर खड़े करते हैं। जीवन में संतुष्टि के लिये निरंतरता उतनी ही आवश्यक है, जितना स्वास्थ्य के लिए व्यायाम आवश्यक होता है। एक तरह से जीवन में ठहराव हारने जैसा होता है और निरंतरता को विजय का प्रतीक मानना चाहिए।
आज साठोत्तरी समाज में ऐसे लोगों का प्रतिशत अत्यल्प है जो आज भी अपनी सक्रयिता और अपनी जीवनशैली से सबको आकृष्ट करते हैं। इनकी संख्या भले ही कम है लेकिन ये वर्तमान पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक होने के साथ-साथ हमारे लिए एक मिसाल की तरह हैं। इन्होंने जीवनभर अपनी कला को निखारा है, बाँटा है। उदारमना बनकर अपनी विधा अगली पीढ़ी को सौंपी है। वर्तमान पीढ़ी का दायित्व है कि वह ऐसे बुजुर्गों का सम्मान करे, उनके अधूरे कार्यों को पूरा करे। मेरा तो मानना है कि हम उनकी तृप्ति हेतु उनके कार्यों में सहभागी बनें। कहीं ऐसा न हो कि उनकी उपलब्धियाँ एवं हुनर उन्हीं के साथ चली जाएँ। हर इन्सान अमर होना चाहता है और हम सब जानते हैं कि वही इन्सान अमरत्व पाता है, जो समाज को अमूल्य या अनोखा उपहार देकर जाता है। क्या हम ऐसे लोगों से लाभान्वित होना चाहते हैं? शायद हाँ और नहीं भी। जब तक समाज है और समाज में इन्सान हैं तब तक ये ऊहापोह की स्थिति बनी रहेगी, लेकिन आप, हम और हमारे जैसे लोग ही इस दिशा में आगे बढ़ेंगे तो ये साठोत्तरी समाज के लिए आदरभाव एवं कृतज्ञता कहलाएगी।
हम संस्कारधानी में रहते हैं, इसका हमें गर्व हैं लेकिन संस्कारी पथ पर चलना उससे भी बड़ी बात है। इस बड़ी बात के लिए आज भी ऐसे लोग हैं, जो कभी पीछे नहीं हटे। आज भी ऐसी संस्थाएँ एवं संगठन हैं, जो निरंतर इस हेतु समर्पित हैं। जब बात आती है समग्र जीवन ‘‘कला साधना‘‘ में आहूत करने वाले व्यक्तित्व की। जब बात आती है चित्रकला में राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करने वाले की अथवा जब बात आती है पूर्ण कर्तव्य निष्ठा से अपनी कला को दान में देकर शिष्यों को कलापथ पर अग्रसर करने वाले की, तब संस्कारधानी का ये विशेष वर्ग भला पीछे क्यों रहता?
बात है 10-10-10-10-10 की । अर्थात 10 अक्टूबर सन् 10 के 10 बजकर 10 मिनट की. आशय है संस्कारधानी में पुष्पित-पल्लवित कलासाधक, हम सबके मा‘साब कामता सागर के अमृत महोत्सव की । आदरणीय मा‘साब को हमारी शुभ-कामनाएँ। हम उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से पूर्व परिचित हैं परन्तु इस खुशियों भरे अविस्मरणीय अवसर पर उनका संक्षिप्त जीवन परिचय देना आवश्यक समझते हैं:-
श्री कामता सागर जी की निम्न रचना पाठकों हेतु प्रस्तुत है :-
बाँसुरी नहीं बजती, आदमी बजता है
कितनी सुरीली थी
फेरी वाले ने खुद
बजा कर सुनाई थी।
तब खरीद लाये थे
घंटों से उलझे हो
पसीने-पसीने हो
अँगुलियाँ हथौड़े सी
चलती हैं।
किंतु निकल नहीं पाते
वैसे मीठे स्वर।
तो रख दो, छोड़ दो,
ओर पोंछ डालो
पसीने को
बाँसुरी नहीं बजती
आदमी बजता है।
=000=
-आलेख-

3 टिप्पणियां:
आदरणीय श्री कामता सागर को उनके अमृत महोत्सव पर शुभकामनाएँ एवं बधाई...
अच्छा लगा रचना पढ़कर एवं परिचय प्राप्त कर.
आदरणीय कामतासागर जी का परिचय जानकर बहुत बढ़िया लगा .... कामतासागर जी मेरे पापा स्वर्गीय पंडित बद्री प्रसाद जी मिश्र के अच्छे मित्र रहे हैं और उनका मेरे निवास स्थान पर काफी आना जाना रहा है ... अमृत महोत्सव पर अनेकों बधाई और शुभकामनाये .... आदरणीय दीघार्यु हों की कामना के साथ...
महेंद्र मिश्र
जबलपुर.
Shubhkaamnaon ke sath Dheron badhai!
Rgds
Ramkrishna Gautam
एक टिप्पणी भेजें