गुरुवार, 23 सितंबर 2010

श्रीमती किरण खत्री का काव्य संग्रह " अश्कों की लोरियाँ " अंतस की अभिव्यक्ति है- किसलय.

                 साहित्यिक सृजन स्वयं अपने आप में वे समस्त गुण समाहित किए हुए है जिसमें संलग्न व्यक्ति सामान्य से हटकर नज़र आता है. समाज में उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, एवं समाज को नई चेतना और नई दिशा देने हेतु उससे समाज की अपेक्षाएँ भी जुड़ी होती हैं. इन बातों से सृजक की जहाँ जवाबदेही बढ़ती है वहीं उसके लेखन में निरंतर प्रहारक क्षमता की वृद्धि भी होती है जो समाज को चिंतन के लिए बाध्य करती है.
                   सामान्य तौर पर सृजन हमारे इर्द-गिर्द घटित घटनाओं, भोगे दुख-सुख तथा अनुभवों पर आधारित दस्तावेज़ की तरह होता है. सृजक का प्रयास होता है कि वह अपने अंतर्मन में उपजे विचारों, उथल-पुथल तथा संवेदनाओं के साथ-साथ अपने द्वारा नियत किए गये दृष्टिकोण से समाज को अवगत करा सके. प्रत्येक सृजक अलग-अलग भौगोलिक, आर्थिक, परिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का सामना करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होता है. अध्ययन, श्रवण एवं अनुभव के आधार पर उसका सृजन वृहद रूप धारण करता चला जाता है.
                      समय, परिस्थितियाँ एवं व्यवस्थाएँ सृजक को सृजन के नये नये अवसर और विषय प्रदान करते हैं. अपनी लेखनी से सृजक अपने दृष्टिकोण से अवगत कराते हुए पाठकों को यथोचित संदेश भी देता है जो साहित्य में निहित सर्वश्रेष्ठ गुण कहा जा सकता है. साहित्य किरणों का प्रस्फुटित होना श्रीमती किरण खत्री के नाम, गुण, धर्म में ही निहित है. उनकी विस्तृत-शिक्षित पृष्ठभूमि, संस्कार-सुवासित परिवेश और लेखन की ललक का परिणाम ही उनका काव्य संग्रह " अश्कों की लोरियाँ " हमारे सामने है.
                             सृजन-समीक्षा से पूर्व मैं उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालना आवश्यक समझता हूँ. सुसंस्कृत, संयमित, व्यवहारिक, धर्मनिष्ठ किरण जी एक राजनैतिक एवं सामाजिक नेत्री हैं. इन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों, परेशानियों, भेदभाव एवं ग़रीबी को अत्यंत निकट से देखा ही नहीं अपनी सक्रियता और सहयोग से उनके निराकरण भी कराए हैं. यही कारण है कि इनके द्वारा आँखों देखा और अनुभव किया विचार-पुंज ही शनैः शनैः साहित्य का रूप लेता गया.
बचपन, ग्राम्य जीवन, पारिवारिक- सामाजिक -राजनैतिक-राष्ट्रीय परिधि के सभी विषयों पर इनकी लेखनी चली है. गावों की बात करें तो इन्होंने कितनी सहजता से एक ग्रामीण रेखाचित्र खींचा है-
पीपल की वो ठंडी छाँव, दोपहरी में जलते पाँव .
खट्टी अमियाँ के वो दौर, आई याद गाँव की भोर ..

                           मंदिर, मस्ज़िद, गिरजाघर और गुरुद्वारा में अलग-अलग बैठाकर ईश्वर के एक अस्तित्व को टुकड़े-टुकड़े में बाँटना, पूजाघरों में गैर धर्मों और नामों की बंदिशें, पूजा विधियों और आराधनाओं में कट्टरवादिता की पक्षधर कवयित्री श्रीमती किरण खत्री कदापि नहीं हैं. बेटा-बेटियों के फ़र्क को किरण जी उचित नहीं मानती. उनके अनुसार बेटियाँ उतना ही सुखद एहसास देती हैं जितना कि हमारे बेटे. किरण जी बहुओं को हृदय से अपनाकर उन्हें अपनी बेटी समझने की बात ही नहीं करती, उन्होंने याथार्थ जीवन मे चरितार्थ भी किया है -
यह तो है बहू, किसी का है लहू.
उसे समझो अपना, तोडो न उसका सपना..
या फिर
लगता नहीं कि तुम हो किसी और का लहू.
दिल का टुकड़ा हो, बेटी हो, नहीं  हो  तुम  बहू   
                                             हमारे समाज में नारियों की दॉयम दर्जे वाली दशा बार-बार कचोटती है. उनकी पुरुषों से प्रतिस्पर्धा तो नहीं है परंतु नारी अस्तित्व को सम्मानजनक और अधिकार संपन्न बनाने की अभिलाषा स्पष्ट दिखाई देती है. महिलाओं पर सदियों से हो रहे अन्याय, अत्याचार और प्रताड़ना से वे पीड़ित भी हैं उत्तेजित भी हैं-
मैं दौड़ी खुशियों के पीछे, गम आए फैला बाँहें.
अश्कों ने दीं लोरियाँ, अपने ने दीं आहें..
नारी के अस्तित्व का उन्हें अंदाज़ा है परंतु उनके महत्व का ग़लत आकलन उन्हें अखरता है-
आँसू पी-पी हँसती रहती.
यूँ ही जीती मरती नारी..
अथवा
खुशियों पर रहे दर्द के साए.
अपने भी बनते रहे पराए..
'दर्द सिमटते नहीं' रचना में अभिव्यक्त भाव देखें -
दर्द सिमट्ते नहीं - इनके साथ जीना पड़ता.
ज़ख़्म सूखते नहीं - मन को रिसना पड़ता .
अश्क रुकते नहीं - इन्हें तो पीना पड़ता.
आहें रुकती नहीं - लबों को सीना पड़ता.
रिश्ते टूटे नहीं - स्नेह से भीगना पड़ता.
उदासी घटती नहीं - हँसी से सींचना पड़ता..

नारियों के दर्द और उनकी दशा पर उन्होंने लिखा है-
भावनाएँ उसकी बनीं हैं खिलौने.
हर रिश्ते रहे ऊँचे, नारी के कद बौने.

                                            कंटीली राह पर चलने जैसा होता है नारी का जीवन. रामराज्य से आज तक नारियों को परीक्षा ही देना पड़ रही है. उसे अब भी यथोचित न्याय नहीं मिल पाता. सार्वजनिक रूप से तो महिलाओं के सम्मान में महिला दिवस मनाया जाता है, लेकिन घर के अंदर वही बेबसी और अत्याचार का सामना आज भी आम बात है. जीवन-पर्यंत माँ-बाप से स्नेह करने वाली बेटियों को पराया धन कहना भी कवयित्री को नहीं भाता. इस तरह काव्य संग्रह की अनेक रचनाएँ नारियों का प्रतिनिधित्व करती हुईं महिलाओं की हक़ीकत बयान करती हैं.
                              दहेज-दानव, महँगाई-डायन, भ्रष्टाचार पर भी रचनाओं के माध्यम से करारे प्रहार किए गये हैं. किरण जी द्वारा ग़रीबों की दुर्दशा पर लिखी रचनाएँ पढ़कर प्रतीत होता है कि एक संपूर्ण ग़रीब वर्ग ही हमारी आँखों के सामने खड़ा हो गया है, लेकिन यहाँ भी किरण जी अपने दायित्व से मुँह न मोडते हुए पाठकों को प्रेरित करती हैं कि वे कुछ ऐसा करें जिससे ग़रीबों का जीवन स्तर सुधरे और उन्हें मूलभूत आवश्यकताएँ उपलब्ध हो सकें. उनके दुख-सुख में सहभागी बनें, अपने कर्त्तव्य और आचरण से हम उनके दिलों में अपनी जगह बना सकें. अपने पूर्वजों, महापुरुषों, अपने धर्म, अपनी आदर्श परंपराओं को विस्मृत न करने वाली बातें कवयित्री के संस्कार-संपन्न होने की पुष्टि करती हैं. जीवन में प्यार का रंग सब रंगों से महत्व्पूर्ण होता है. किरण जी की श्रांगारिक रचनाओं में मर्यादित प्रेम के दर्शन होते हैं. नायक या पति को "कान्हा" कह कर संबोधित किया जाना इसका प्रमाण है. इनकी स्नेह-सिक्त दो पंक्तियाँ देखें -
आने की आहट से मन खिल जाता है.
तेरी आँखों में सारा जहाँ मिल जाता है..
प्रेम, भाई-चारा और रिश्तों में मिठास बढ़ना चाहिए. देशद्रोह, रिश्वतखोरी, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, झगड़े-फ़साद तथा आतंकवाद के लिए देश में कोई स्थान नहीं होना चाहिए. आज के कश्मीर की परिस्थितियों पर किरण जी का चिंतित दिखाई देना लाज़मी लगता है-
भारत माँ का यह ताज़ - ज़ख़्मी हो गया आज ..

आप पाकिस्तान को खरी-खोटी सुनाने से भी नहीं चूकीं -
खर्च करो न शस्त्रों पर, इससे नया पाक बना लो.
झूठे फरेबी न बनो, अब नया सम्मान पा लो..

                                     इसी तरह कारगिल हो या हमारी सरहदें, किरण जी से ये विषय भी अछूते नहीं रहे. "अश्कों की लोरियाँ " में किरण जी अपनी लघु कविताओं के माध्यम से अपने बहुआयामी दृष्टिकोण को प्रदर्शित करने में सफल रही हैं. राखी और सावन की स्मृतियाँ, वर्षा और फागुन का चित्रण, विदेश गये बेटे को वापस बुलाने की ललक, भ्रूण हत्या, मातृभाषा, वृद्धों की मनोदशा, ऐसे अनेक विषयों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है.
पर्यावरण पर दो पंक्तियाँ देखें-
सिसकी भर कहते पेड़.
हमारा अमन- चैन न छेड़..
उन्हें जहाँ किन्नरों का राजनीति में आना सुखद लगा, वहीं नारी स्वच्छन्दता के नाम पर अमर्यादित आचरण बुरे लगे.
यथा-
नारी मुक्ति के नाम पर , धुन पर थिरके बाला.
जड़ हुई मानवता, नारी पिए ज़ाम का प्याला..
                                  किरण जी की लेखनी अपने शहर जबलपुर के लिए भला क्यों न चलती.. जबलपुर पर लिखी गयीं रचनाओं में शहर विकास और शहर की समस्याओं को लेकर उनकी चिंता समझी जा सकती है. जबलपुर के जनप्रतिनिधि अपने उत्तरदायित्वों से कतराते हैं, इस पर इनकी दो पंक्तियाँ देखें-
कैसा हुआ शहर, ऋषि जाबाली का .
उपवन तो है, पता नहीं माली का ..
काव्य संग्रह की कविता " लालू का किस्सा" रचना की पंक्तियाँ देखें-
नौ बच्चों की उन्होंने बना दी टीम.
परिवार नियोजन की फेल हुई स्कीम.
जन-जन की ज़ुबाँ पर, लालू का किस्सा.
है जोकर बना राजनीति का हिस्सा...
                                कवयित्री ने उक्त रचना में व्यक्तिगत रूप से जो कटाक्ष किया है, वह साहित्य के आदर्श श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. एक आदर्श साहित्यकार द्वारा संकेतों के माध्यम से अपने दृष्टिकोण को रखा जाना चाहिए. काव्यसंग्रह में पाई गयीं शब्दों एवं व्याकरणीय त्रुटियों के लिए प्रकाशक, संपादक एवं सृजक सम्मिलित रूप से ज़िम्मेवार कहे जा सकते हैं, वैसे लेखन पर इनका विशेष प्रभाव नहीं पड़ता. छान्दिक दृष्टि से कविताओं में परिपक्वता की और गुंजाईश प्रतीत होती है. कुछ रचनाएँ ग़ज़ल प्रारूप में लिखी तो गई हैं परंतु नियम-क़ायदों से ज़्यादा भावों को प्रधानता दी गयी है. विषयों के केंद्रीकरण और धारा प्रवाह हेतु रचनाएँ और परिश्रम मांगती हैं. संग्रह की अनेक रचनाओं में जहाँ गाम्भीर्य झलकता है वहीं अनेक रचनाएँ दिशाबोधी संदेश भी देती दिखाई देती हैं. संग्रह में प्रांजलता के स्थान पर सरल, सहज एवं आम भाषा का प्रयोग पाठकों के सीधे अंतस तक पहुँचाता है. भावनात्मक नज़रिए से यह कहने में किंचित संदेह नहीं है कि किरण जी के लेखन में असीम संभावनाएँ है. किरण जी द्वारा रचित बहुत सी रचनाएँ सीधे अंतस के अंतिम छोर तक पहुँचती हैं जो निश्चित रूप से सराहनीय और सुखद अनुभूति है.
                                             कवयित्री श्रीमती किरण खत्री जी को निकट से जानने के पश्चात मेरी मान्यता बनी है कि बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व के चलते यदि "अश्कों की लोरियाँ" काव्य संग्रह पाठकों के सामने है तो इसे हम उनकी साहित्यिक अभिरुचि तथा चिंतनशीलता की देन ही कहेंगे. हम उम्मीद करते हैं कि श्रीमती किरण खत्री जी भविष्य में भी अपने व्यस्त क्षणों में से साहित्य सृजन हेतु सायास समय निकालेंगी एवं साहित्य धरोहर में आशानुरूप योगदान करती रहेंगी. हमारी इनके स्वस्थ, समृद्ध तथा साहित्य श्रीवर्धन हेतु मंगल भाव.
















विजय तिवारी "किसलय"

2419 विसुलोक, मधुवन कालोनी,
उखरी रोड, जबलपुर-२ (म. प्र.) , भारत

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छा परिचय कराया एवं समीक्षा पसंद आई.

आभार.

Unknown ने कहा…

बहुत ख़ुशी हुई जान कर और बांच कर.

बधाई !