रविवार, 17 मई 2009

दोहा श्रृंखला [दोहा क्र. ५७]

मरु तपती जब ग्रीष्म में,
बनें सहारा ऊँट ।

सुधा सदृश संतृप्ति दें
पानी के दो घूँट ॥

- विजय तिवारी " किसलय "

4 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

वाह !!

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

संतृप्ति दें........... के दो घूँट . इस तपन में पानी का एक घूट भी अमृत के सामान होता है . एक घूट जीवन भी देता है . कम शब्दों में अच्छी प्रस्तुति . आभार.

"अर्श" ने कहा…

KAM SHABDON ME LIKHNE KE JAADUGAR HAI AAP.. KAMAAL KI BAAT KAHI HAI AAPNE... BADHAAYEE SWIKAAREN..



ARSH

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

सत्‍य कहा आपने, जब तृष्‍णा अपने चरम पर होती है, तो कैसा भी जब हेा, एक घूट भी अच्‍छा लगता है।