जबलपुर संस्कार धानी में २७ जुलाई १९२९ को जन्मे श्री ज्ञान चन्द्र पंडा अपने ज़माने के स्नातक छात्र होने के साथ ही साथ एक वरिष्ठ शायर और संगीत प्रेमी भी हैं . इस उम्र में भी आप नगर की अनेक साहित्यिक संस्थाओं में सक्रिय हैं.. हम श्री पंडा जी के स्वस्थ्य और शतायु होने की कामना करते हैं.आज आप के समक्ष उनकी एक ग़ज़ल पेश करते हुए हमें बेहद खुशी हो रही है :-
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मुझसे मेरी ही ग़ज़ल को दूर ले जाया गया।
इस तरह हर शे'र को क्या खूब तरसाया गया॥
दर्द हो तो जिंदगी दो चार दिन का खेल है।
क्यूं किताबों में इसे सौ साल बतलाया गया॥
मैं समंदर हूँ तेरी तश्नालबी को क्या करूँ।
इक सुनामी की तरह मुझको भी छलकाया गया
जख्म की गहराईयों को देखना बस देखना
मेरी इस मासूमियत को जुर्म तक लाया गया॥
कौम मज़हब परस्तारी रास्तों में आ गए
फिर लहू के रंग को हर बार झुठलाया गया ॥
प्रस्तुति :- विजय तिवारी "किसलय"
6 टिप्पणियां:
Wa
apaka sankalp
anukarniy hai
sadar
पंडा जी की रचना पसंद आई. आभार आपका.
PANDA JI KE EK KHUBSURAT GAZAL SE RUBARU KARAANE KE LIYE AAPKA BAHOT BAHOT SHUKRIYA UNKI GAZAL KHASA PASAND AAYEE...BADHAYEE..
ARSH
जबलपुर के विद्वानों से लोगों को परिचित करवाने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया ... ज्ञान चंद पंडा जी से भी आपने मिलाया ... उनकी गजल अच्छी लगी।
vijay ji
itni badhiya gazal padhwane ke liye shukriya.
बहुत सुन्दर रचना है । आभार
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