रविवार, 26 अप्रैल 2009

पावस और पर्व पर विहंगावलोकन

आदि से अब तक सृष्टि का संचालन नियमानुसार चला आ रहा है । सूर्य का अपना क्रम निर्धारित है . चंद्रकलाएँ आज भी वैसी ही घट - बढ़ रही हैं . सभी ग्रह - नक्षत्र अपने अपने नियत पथ पर गतिशील हैं . पृथ्वी भी सुनियोजित चलायमान है. जल - वायु - अग्नि - आकाश सभी अपने नियमों के पालनार्थ कटिबद्ध हैं .
पृथ्वी के सन्दर्भ में कहा जाता है कि अपनी ही धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा के दौरान सूर्य से उसकी दूरी की घट-बढ़ ही ऋतुओं की जनक है . वर्ष भर पूरे विश्व में अलग-अलग कालखण्ड में अलग-अलग ऋतुएँ होती हैं जिन्हें उनकी प्रकृति और गुणों के अनुरूप जाना जाता है. आदि काल में ही मानव ने ऋतुओं का महत्व समझ लिया था . मानव क्या सभी जीव जन्तु भी ऋतुओं के अनुसार हर्ष और विषाद प्रकट करते हैं . अपने रहनसहन में बदलाव लाने के साथ - साथ समयानुसार अपना खानपान भी बदल लेते हैं .
भारत को प्राकृतिक, जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, भाषा, जनसंख्या, ऋतुओं सहित अनेक आधार पर विभिन्न भागों में बाँटा जा सकता है। भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भारत के क्षेत्र विशेष एक दूसरे से भिन्नता लिए दिखाई पड़ते हैं . कश्मीर से लेकर केरल तक या गुजरात से लेकर असम तक सभी जगहों पर भौगोलिक भिन्नता के परिणामस्वरूप ऋतुओं में भी भिन्नता है. इसके अलावा भी भारत अनेक क्षेत्रों में अनोखा है . भारत जैसी वर्गीकृत ग्रीष्म - वर्षा - शरद - शिशिर - हेमंत - बसंत नामक छः ऋतुएँ भी विश्व में कहीं नहीं हैं . इन सभी ऋतुओं की अपनी अपनी अलग पहचान एवं विशेषताएँ हैं .
संपूर्ण वर्षाकाल को चौमासा नाम से संबोधित किया जाता है । भारत में पर्वों इसकी समयावधि जून से सितंबर तक मानी गई है . मई के आसपास आकाश में बादलों के झुंड दिखाई देने लगते हैं. बिजली आकाश में चमकने लगती है . दक्षिण भारत के तटीय क्षेत्रों में कहीं - कहीं बारिश भी होने लगती है . मानसूनी हवाओं, बारिश, पानी, हरियाली एवं पर्वों की बहुलता के कारण सभी इस ऋतु के आगमन की प्रतीक्षा करते हैं . ज्येष्ठ मास वैसे भी वर्षा के आगमन का संकेतक कहा गया है. भीषण गरमी के बावज़ूद वृक्षों में पानी चढ़ने लगता है . पीपल, बरगद अपने नये पल्लवों से हरे भरे हो जाते हैं . सूखे पलाश भी नये पत्तों के साथ अपनी शाखाएँ हिलाकर हरियाली प्रदर्शित करते हैं. कहीं कहीं हल्की बारिश के चलते मेढक वर्षादूत बनकर पावस के आगमन का संदेश सुनाते प्रतीत होते हैं. यह वही समय होता है जब धरा के सभी जीव - जन्तु विकराल गर्मी से व्याकुल हो उठते हैं . नौतपा की गरमी अग्निवर्षा जैसी लगती है . नौतपा के साथ ही वायु मंडलीय गतिविधियों से बारिश की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं और तभी बारिश हम सभी को खुशियों की सौगात देती है . बाहर निकालकर मेढकों की टर्राहट बारिश के प्रति आशान्वित करती है . शीतलता पाकर पक्षियों के समूह चहकने लगते हैं, मयूर नृत्य द्वारा अपनी खुशी प्रदर्शित करते हैं . धरा पर हरियाली आच्छादित होने लगती है . मेघ जहाँ पृथ्वी को संतुष्ट करने की होड़ लगाते हैं वहीं कृषक और आम आदमी राहत की साँस लेता है . ऐसी पावस की ऋतु में भला साहित्यकार भी चुप कैसे बैठ सकते हैं . वे भी पावस की सतरंगी दुनिया को अपनी लेखनी के माध्यम से समेटने का प्रयास करते हैं ।
हमारा भारत कृषि प्रधान देश है और कृषि का तो सर्वस्व ही वर्षा पर निहित होता है । वर्षा की न्यूनाधिकता पर ही कृषकों की खुशियाँ निभर करती हैं . चौमासे में प्रायः लोग यात्राएँ कम ही करते हैं . ऐसे में सामाजिक - धार्मिक एवं सांस्कृतिक पर्व - उत्सवों की बाढ़ सी आ जाती है . वर्षाकालीन बीमारियों का भी भय रहता है . ज़रा सी भी असावधानी बीमारी को आमंत्रण दे देती है . शायद इसी कारण इस ऋतु में हमारे बुजुर्गों ने अन्य ऋतुओं की अपेक्षा व्रत एवं उपवास कुछ ज़्यादा ही बना कर रखे हैं . हमारे विशाल देश में विभिन्न जातियों, समुदाय तथा भाषा - भाषाई लोग निवास करते हैं . इनके रहन - सहन , ख़ान - पान तथा रीति - रिवाज़ भी एक दूसरे से भिन्न होते हैं, परंतु मूलरूप में हिंदू संस्कृति की एकरूपता इनमें समाविष्ट है .
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि व्रत एवं पर्वों का एक ही ध्येय होता है और वह है मन पर नियंत्रण करते हुए शारीरिक तथा आध्यात्मिक स्वस्थता प्राप्त करना । व्रत अनेक रोगों से मुक्ति के साथ - साथ मानव के स्वस्थ जीवन यापन में सहायक होते हैं. व्रतों से आत्म शुद्धि भी होती है .
प्राचीन काल में इस बहुपर्वी ऋतु के सभी व्रत - पर्वों को नियमबद्धता से मनाया जाता था । उसका ही प्रतिफल था कि उस काल में आज जैसे रोगों का बाहुल्य नहीं था. लोग नीरोगी तो होते ही थे, शतायु भी होते थे . कहा जाता है कि व्रत - पर्व एवं उत्सव नास्तिक को आस्तिक, स्वार्थी को परमार्थी, भोगी को योगी, कृपण को उदार और नीरसता को सरसता में बदलकर उन्हें बनाता है . लक्ष्योन्मुखी बनाता है .
पावस में जहाँ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को सरयू तट पर रथ यात्रा में असंख्य श्रद्धालु एकत्र होते हैं वहीं आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान वेद व्यास की जन्म तिथि पड़ती है । गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाने वाला यह पर्व गुरु - शिष्य परंपरा का द्योतक है . इसी पावस में गुन्डिचा मंदिर में जो भगवान जगन्नाथ जी का महोत्सव होता है उसे गुन्डिचा महोत्सव कहते हैं . श्री हरि के शयन काल में व्रत परायण होकर वर्षा के चार महीने अर्थात चौमासा व्यतीत करने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है . चौमासे में व्रत पालन से व्रती रोगमुक्त होने के साथ साथ सुखमय जीवन यापन करता है . आषाढी देवता का पूजन पूरे आषाढ़ मास चलता रहता है . यह पूजन - व्रत वैसे तो वन देवता के लिए होता है, लेकिन इसमें सभी देवताओं की पूजा - अर्चना की जाती है . भाद्र पद कृष्ण अष्टमी को जगन्नियन्ता , जगतपालक भगवान विष्णु ने ही कृष्ण रूप में श्री वसुदेव जी के यहाँ कंसासुर के कारागृह में देवकी के गर्भ से अवतरित होकर कन्स जैसे राक्षस का वध किया था . यह तिथि मुक्ति प्रदायक है . शास्त्रानुसार रोहणी नक्षत्र युक्त अष्टमी तिथि अर्ध रात्रि में हो तो उस तिथि के उपवास से करोड़ों यज्ञ का फल प्राप्त होता है .
श्रावण मास में आशुतोष भगवान शंकर की पूजा का विशेष महत्व है . हरियाली तीज, नागपंचमी, हरितालिका के साथ भाई - बहन का सबसे पावन एवं महत्वपूर्ण पर्व रक्षाबन्धन भी पावस में ही मनाया जाता है .
भाद्र पद की शुक्ल चतुर्थी सिद्धि विनायक चतुर्थी के नाम से जानी जाती है । इनमें किया गया दान, उपवास, पूजन - अर्चन गणेश जी की कृपा से बढ़ कर सौ गुना हो जाता है, परंतु इस चतुर्थी को चंद्र दर्शन वर्जित है क्योंकि इस दिन चंद्र दर्शन से मिथ्या कलंक लगता है, ऐसा कहा गया है . उपरोक्त व्रत - पर्वों के अतिरिक्त ऋषि पंचमी, संतान सप्तमी, राधा जन्माष्टमी , अनंत चतुर्दशी, महालक्ष्मी व्रत जैसे पावस ऋतु के अनेक व्रत - पर्व एवं उत्सव हैं जिन्हें भारतीय बड़ी श्रद्धा भक्ति और आस्था के साथ मनाकर अपने शरीर को नीरोगी तथा आत्मा को निर्मल रखने में सफल होते हैं .
इस तरह पावस ऋतु जहाँ आशाओं को सफलता में रूपांतरित करती है, वहीं भारतीय पारंपरिक रीति - रिवाज़ से मनाए जाने वाले पर्व मानव जीवन में संजीवनी की तरह फल दायक है .
- विजय तिवारी " किसलय "

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

विजय जी
" पावस ऋतु जहाँ आशाओं को सफलता में रूपांतरित करती है, वहीं भारतीय पारंपरिक रीति - रिवाज़ से मनाए जाने वाले पर्व मानव जीवन में संजीवनी की तरह फल दायक है ."
आपके विचारो से शतप्रतिशत सहमत हूँ कि पर्व ही मानव जीवन के लिए संजीवनी का काम करते है . बहुत सारगार्वित उम्दा आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई.

महेंद्र मिश्र
जबलपुर.

sandhyagupta ने कहा…

Aapke is sargarvit lekh ke dwara bahut kuch janne ko mila.Aabhar.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

किसलय जी।
आपने पावस और पर्व पर विहंगावलोकन की सुन्दर छटा प्रस्तुत की है।
हिन्दी साहित्य संगम जबलपुर, और आप बधायी के पात्र हैं।

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

behad gambher aalekh
badhaiyaa
पर्वों के अतिरिक्त ऋषि पंचमी, संतान सप्तमी, राधा जन्माष्टमी , अनंत चतुर्दशी, महालक्ष्मी व्रत जैसे पावस ऋतु के अनेक व्रत - पर्व एवं उत्सव हैं जिन्हें भारतीय बड़ी श्रद्धा भक्ति और आस्था के साथ मनाकर अपने शरीर को नीरोगी तथा आत्मा को निर्मल रखने में सफल होते हैं . इस तरह पावस ऋतु जहाँ आशाओं को सफलता में रूपांतरित करती है, वहीं भारतीय पारंपरिक रीति - रिवाज़ से मनाए जाने वाले पर्व मानव जीवन में संजीवनी की तरह फल दायक है
sahee hai kintu adhikansh mahilaaon ke liye kyon..?