जबलपुर शहर में आज़ादी के बाद के नव निर्माताओं में हीरा लाल जी की भी एक जगह है। 1960 में मैने उन्हें पहली बार देखा था. दुबली काया, लचीली देह और लंबी गहरी मुस्कुराहट से लैस हीरा लाल जी मृदु और मितभाषी थे. हम कभी कभी डिलाइट कम्पाउन्ड के बाजू में एक पीले पुराने बंगले में मिलते थे. वह दुनिया, वह समय अब केवल कल्पित किया जा सकता है क्योंकि वह दुनिया अब लुप्त हो चुकी है, वे जगहें नष्ट हो चुकी हैं. जब मैं आया तो हीरा लाल जी से बातचीत और हमारा उठना -बैठना बढ़ता गया. अब तो बाहर का शिल्प ही बदल गया है. जाहिर है मनुष्य भी बदल गये हैं. भाषा और तकनीक भी बदल गई है. हीरा लाल जी का आकर्षण उनकी प्रतिभा और प्रतिबद्धता थी. उनके दुर्बल शरीर और शिराओं में गहरी प्रगतिशील लय थी. उस समय और आज के समय में अनेक दिलचस्प पहलू हैं जिनके विस्तार में मैं नहीं जाऊँगा.
मुझे अगर मात्र एक-दो शब्दों में हीरा लाल जी के जीवन को परिभाषित करना हो तो कहूँगा कि वे भीतर से चट्टान थे, बाहर से झरना. उन्हें बर्फ से ढँका हुआ ज्वालामुखी भी कह सकते हैं. उन्हें आईस बर्ग भी कह सकते हैं क्योंकि एकदम से उनकी आत्मा का समूचा आकार पता नहीं चलता था. वे ठंडे थे या गरम इसे बताना कठिन था. उनका व्यक्तित्व को-एक्जिस्ट करता था.
इस छोटी सी टिप्पणी में मैं बताना चाहता हूँ कि स्वर्गीय हीरा लाल जी और हमारे आज के पत्रकारों के बीच जो अंतराल है उसमें कितनी उथल-पुथल और सृजन तथा विनाश हो चुका है। आज भी हीरा लाल जी और उनके कृतित्व का स्मरण कृतज्ञता के एक छोटे से दीपक को जलाए रखने के समान है, जबकि बीसवीं सदी के अनेक विचारक और दार्शनिक अपनी किताबों में इतिहास का अंत, कविता का अंत, स्मृति का अंत जैसे अनेक अंत लिख रहे हैं। भूलने और भुला दिए जाने के इस जबरदस्त युग में एक पुराने पत्रकार और नये पत्रकार के बीच अगर डोर टूटी नहीं बनी हुई है तो इसे मैं जबलपुर की या अपनी भाषा की एक विशेषता ही मानूँगा.
वह समय या पुराना समय अख़बारों के इंतज़ार और बेकरारी का समय था। छपी हुई चीज़ों का गहरा रोमांच था, उनका कोई विकल्प नहीं था. एक रेडियो जो हर अख़बारों के दफ़्तरों में रखा रहता था या वह बोलता, खट-खट करता टेलीप्रिंटर. यह हीरा लाल जी का समय था. लेकिन अखबारों , टेलीप्रिंटर और रेडियो के अलावा जो सबसे जबरदस्त चीज़ थी जिसे हमारे पुराने सिद्ध पत्रकार पढ़ते थे वह थी बिटवीन द लाइंस. आज इस बिटवीन द लाइंस या रीडिंग आन द वाल्स कला का क्षय हुआ है. हीरा लाल जी इसी तरह के पत्रकार थे. एक विश्वसनीय संस्था की तरह जो पाठक के साथ कभी भी छल नहीं करेगी. कितना रूमानी और मेहनतकश लगता है कि आज भी हाकर घनघोर बारिश, कड़कड़ाती ठंड और तरबतर गर्मियों में सुबह –सुबह शहर भर में प्रतिदिन अख़बार गिराते हैं और अलार्म करती फटाक से एक आवाज़ धरती पर गिरती है, पर यह कितने दिन? जबलपुर को विकास का सिंगापुर बनाने वाले योजनाकार, राजनैतिक वर्ग, विकास मार्गी, बुद्धिजीवी, व्यापारी और पत्रकार इस आवाज़ को कितने दिन सुनेंगे? सारे पश्चिमी समाज में हाकर की संस्था समाप्त हो चुकी है. हमारे यहाँ अभी भी हाकर सब्जी के ठेले, दूध वाले, फेरी वाले घर दरवाज़ों पर आते हैं. वे घर घर दस्तक देते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान ने संस्कृति की जिस सीढ़ी पर पैर रखा है उसकी आगामी सीढ़ियों पर यह सब समाप्त हो जाएगा और भी असंख्य चीज़ें समाप्त हो जाएँगी. तब आपको स्ट्रीट बाक्स से अख़बार, रिलाइंस फ्रेश से सब्जी और मिल्क वाली मशीन से दूध लेना होगा. हीरा लाल जी के समय और आज के समय के बीच फ़र्क को हम इस तरह विजुएलाइज कर सकते हैं.
हीरा लाल जी इतिहास के उस छोर पर हैं और हम इस दूसरे टूटते-फूटते छोर पर – विखंडित होते छोर पर और अगला छोर होगा बेहद हाई टेक. इसकी एक झलक हम चीन में औलंपिक के दौर में देख सके हैं. जापान, हांगकांग, अमेरिका तो पर्याप्त हाईटेक हो चुके हैं. इसलिए अब हमारे पास जो खबर अख़बारों के मार्फत आती है उसे हम पहले से जान चुके होते हैं, उसका रोमांच तो ख़त्म ही हो चुका होता है . बस पुष्टि और उसका विस्तार हम प्रिंट मीडिया में पाते हैं.
सी एन एन के एक सर्वे में यह परिणाम आया कि पुराने पत्रकार लोग पढ़ते थे, पक्की, सच्ची खबर देते थे पर तकनीकी और नयेपन से बचते थे. आज के पत्रकार तकनीक प्रवीण और शिल्पी हैं पर विचार और अध्ययन में जर्जर हैं. यह भेद पत्रकारिता में सभी जगह मिलता है क्योंकि आज धीरज की जगह जल्दबाज़ी है, मंदाक्रांत की जगह तेज़ी है, समय की जगह तुरत-फुरत है – फ़ास्टफूड की तरह फटाफट खबर है.
सूत्र वाक्य में कहें तो तथ्य पेश करने से लेकर सत्य को उद्घाटित करने तक पत्रकारिता की सरहदें हैं. इन सरहदों के बीच अपनी भूमिका का निर्वाह करते हुए पत्रकार को यह बराबर याद रखना चाहिए कि पत्रकारिता केवल प्रतिक्रिया नहीं बल्कि क्रिया-एक्शन है. तभी कोई पत्रकार ओनली न्यूजमेन की जगह रीयल जर्नलिस्ट बनता है.
स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त से लेकर आज तक लगभग 50 वर्ष की यात्रा का दृश्य तो हमारे सामने आता ही है. यह समय मेरे सामने एक प्रिज्म की तरह उतर रहा है. मुझे परंपरा विच्छिन्न नहीं दिखाई देती. इसमें कोई शोक नहीं है, हाँ बदलाव तो अनिवार्य है.
प्रस्तुति:- विजय तिवारी " किसलय "
3 टिप्पणियां:
आपके आलेख से स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त जी के बारे में बहुत जानकारी मिली ... आपका कहना सही है कि आज मनुष्य भी बदल गये हैं ... भाषा और तकनीक भी बदल गई है ... समय की जगह तुरत-फुरत है ... फ़ास्टफूड की तरह फटाफट खबर है ... जाहिर है पत्रकारिता में अंतर आएगा।
आज क्या बात है
हर तरफ से वज़नदार पोस्ट आ रहीं है
उधर अजय त्रिपाठी इधर आप और भाई डूबे जी क्या कहने
आपके चिठ्ठे की चर्चा समयचक्र पर
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : एक लाइना में गागर में सागर
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